3 मार्च से आदिवासी लोक संस्कृति का प्रतीक भौंगर्या हाट
बड़वानी/जुलवानिया
आदिवासी लोक संस्कृति एवं सभ्यता का प्रतीक तथा देश-विदेश में प्रसिद्ध भौंगर्या हाट 3 मार्च से अंचल में शुरू होंगे। सालभर में केवल होली के एक सप्ताह पहले 7 दिनों तक लगने वाले भौंगर्या हाट में आदिवासी समाज अपनी संस्कृति से जुड़ाव के चलते मांदल की थाप, थाली की खनक तथा बांसुरी की धून पर उमंग-उत्साह व मस्ती से भरपूर कुर्राटियों के साथ नृत्य का अंदाज ही कुछ ओर होता है, लेकिन आधुनिकता के चलते कुछ वर्षों से भौंगर्या हाट के रूप में परिवर्तन देखने को मिलता है।
आदिवासी क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो नगर में लगने वाले भौंगर्या हाट में सिर्फ चुनिंदा मांदल की थाप व थाली की खनक के साथ कुछ समय के लिए बुजुर्गों की कुर्राटियां सुनाई देती है। बांसुरी की मधुर धून, पारंपरिक वेशभूषा में घुंघरु पहन थिरकती युवतियां तथा युवाओं की मदमस्त टोली गायब ही हो गई है।
भौंगर्या आदिवासियों का त्योहार न होकर केवल हाट बाजार मात्र होता है। इसमें समाज के लोग होलिका दहन से पहले होलिका पूजन की सामग्री भुंगड़ा, गुड़, दाली, हार कंगन, खजूर, मीठी सेंव आदि खरीदते है। पारंपरिक वेशभूषा के साथ ड्रेस कोड तय कर एक जैसे नए परिधान में गहनों से लदी युवतियों की टोली ने अब सलवार-कुर्ती तथा महिलाओं के प्रिंटेड लुगड़े व लहंगेदार घाघरे की जगह साडिय़ों ने ले रखी है। वहीं फुंदे वाले रंग बिरंगे रूमाल गले में डाल झुमते युवा जींस, टी-शर्ट में नजर आते है।
झुले नहीं लगने से फिका रहता उत्साह
स्थानीय भौंगर्या हाट की बात करे तो पिछले कुछ वर्षों से नगर मे लगने वाले भौंगर्या हाट मे झुले नहीं लगने से युवक-युवतियों के उत्साह व भौंगर्या की रंगत में कमी नजर आती है। करीब 7-8 वर्ष पूर्व भौंगर्या हाट के दौरान झुला गिरने की घटना के बाद से नगर के भौंगर्या हाट मे झूलों का लगना ही बंद हो गया है। तब की घटना के बाद नगर के भौंगर्या हाट में झुला संचालकों को प्रशासन द्वारा झुले लगाने की अनुमति नहीं देना व बाद के वर्षों में झुला संचालकों का यहां से ना उम्मीद होना भौंगर्या हाट में मनोरंजन में कमी का मुख्य कारण रहा।