“बुढार स्टेशन की उपेक्षा : आस्था के सफ़र पर विराम, आश्वासनों की पटरियों पर दौड़ती जनता”

बुढार।,कोयलांचल अंचल का अतिमहत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन बुढार आज भी अपनी बदहाली और उपेक्षा की कहानी खुद बयान कर रहा है। आज़ादी के सात दशक बाद भी यह स्टेशन यात्री सुविधाओं और प्रमुख ट्रेनों के ठहराव से वंचित है। समय–समय पर जनता ने, सामाजिक संगठनों ने और जनप्रतिनिधियों के माध्यम से रेल प्रशासन तक अपनी न्यायसंगत मांगें पहुँचाईं, परंतु हर बार परिणाम शून्य ही रहा। जनता को आश्वासन मिले, काग़ज़ी कार्यवाही हुई, पर ज़मीनी हक़ीक़त जस की तस बनी रही।
बुढार नगर ही नहीं, बल्कि आसपास के सैकड़ों ग्रामीण अंचलों की जनता इस स्टेशन पर निर्भर है। बावजूद इसके, दुर्ग–नवतनवा, नागपुर–शहडोल जैसी महत्वपूर्ण यात्री ट्रेनें यहाँ से गुजरती तो हैं, पर रुकती नहीं। सवाल यह है कि जब ट्रेनें बुढार की धरती से होकर गुजर सकती हैं, तो यात्रियों के लिए यहाँ ठहराव क्यों नहीं? क्या यह क्षेत्र के लोगों के साथ खुला अन्याय नहीं है?
धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से देखें तो स्थिति और भी पीड़ादायक है। अयोध्या, अमरकंटक, काशी, प्रयागराज जैसे प्रमुख हिन्दू धार्मिक स्थलों तक जाने के लिए बुढार की जनता वर्षों से सीधी रेल सुविधा की मांग कर रही है। आज स्थिति यह है कि श्रद्धालु या तो बसों की भीड़ में धक्के खाते हैं या फिर महंगे निजी साधनों का सहारा लेने को मजबूर हैं। यह तब है, जब बुढार नगर से होकर अनेक लंबी दूरी की ट्रेनें प्रतिदिन गुजरती हैं। क्या आस्था से जुड़े यात्रियों की सुविधा का कोई मूल्य नहीं?
सामाजिक कार्यकर्ता रोहिणी प्रसाद गर्ग ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि बुढार स्टेशन के साथ लगातार सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। उन्होंने नागपुर–शहडोल यात्री ट्रेन को इतवारी तक विस्तारित करने, मुंबई के लिए सीधी ट्रेन चलाने और दुर्ग–नवतनवा ट्रेन के ठहराव की मांग को यात्री हित में अत्यावश्यक बताया। श्री गर्ग ने यह भी बताया कि 4 जुलाई को दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे, बिलासपुर के महाप्रबंधक को सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल द्वारा मांग पत्र सौंपा गया था तथा 29 जुलाई को डी.आर.एम. को पाँच सूत्रीय मांग पत्र दिया गया, जिनमें से चार मांगों को स्वीकृति दिए जाने का आश्वासन मिला।
परंतु तीन माह बीत जाने के बाद भी न तो किसी ट्रेन का ठहराव शुरू हुआ और न ही यात्री सुविधाओं में कोई ठोस सुधार दिखाई दिया। यह स्थिति केवल प्रशासनिक उदासीनता ही नहीं, बल्कि जनभावनाओं के साथ छल का प्रतीक बनती जा रही है।
बुढार स्टेशन की दुर्दशा आज एक बड़ा प्रश्न बन चुकी है—क्या यह क्षेत्र विकास की दौड़ में जानबूझकर पीछे रखा गया? क्या जनप्रतिनिधियों की भूमिका केवल ज्ञापन सौंपने और फोटो खिंचवाने तक सीमित रह गई है? आस्था, सुविधा और अधिकार की मांग कर रही जनता अब जवाब चाहती है।
जब तक बुढार स्टेशन को उसका वाजिब हक़ नहीं मिलेगा, तब तक यह सवाल गूंजता रहेगा—क्या यह जनता के साथ छल नहीं है?