शिमला के बंदरों को विदेश भेजना चाहते थे अंग्रेज, गांधीजी ने किया था विरोध

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शिमला
हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला बंदरों के आतंक से परेशान है। बीते साल केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने बंदरों को एक साल के लिए विनाशक घोषित किया था। साथ ही गैर-वन इलाके में इन जानवरों को मारने के लिए एक साल का समय दिया गया था। यह योजना परवान नहीं चढ़ सकी लेकिन इस बीच यह जानकारी भी सामने आई कि राजधानी में हिंसक बंदरों से निपटने की कवायद अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है लेकिन अभी तक इस मामले में कोई प्रभावी या सर्वमान्य फैसले तक नहीं पहुंचा जा सका है।

'इंडियन एक्सप्रेस' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 1943 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत सरकार ने शिमला में बंदरों के आतंक से निपटने के लिए कई उपायों पर गौर किया था। इसमें बंदरों को विदेश निर्यात करने की भी योजना शामिल थी लेकिन बाहरी देशों द्वारा इन बंदरों के दुरुपयोग की आशंका के चलते इस योजना को अमली जामा नहीं पहनाया गया। इस घटना के कई दशकों बाद आज भी शिमला में यह समस्या जस की तस बनी हुई है। हालांकि, शहर में बंदरों को बर्मिन घोषित किए अब 6 महीने से ज्यादा वक्त बीत चुका है।

नैशनल अर्काइव्स ऑफ इंडिया से प्राप्त दस्तावेजों से पता लगा कि साल 1943 में तत्कालीन भारत सरकार ने बंदरों के आतंक से निजात पाने के लिए बंदरों को मारने की भी योजना पर चर्चा की थी लेकिन बिना किसी नतीजे पर पहुंचे इस चर्चा को भी विराम दे दिया गया। दस्तावेजों के मुताबिक, इसके बाद बंदरों को पकड़कर उन्हें विदेश भेजने के उपाय पर बहस हुई। वह द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर था। ऐसे में दुश्मनों द्वारा बंदरों के गलत इस्तेमाल की आशंका थी इसलिए इस योजना पर भी बैन लग गया।

अभिलेखागार के रेकॉर्ड्स के मुताबिक, उस समय ब्रिटिशों को यह डर था कि जर्मनों का बंदरों के जरिए भारत में यलो फीवर फैलाकर जैविक युद्ध का भी प्लान था। जनवरी 1943 के 6 पेज के इस दस्तावेज में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बंदरों से निपटने के अन्य तरीकों पर भी विचार किया था। इस दिशा में किसी भी योजना के निर्माण में हिंदुओं की धार्मिक मान्यताओं की भी अहम भूमिका थी, जहां बंदरों की हत्या उचित नहीं माना जाता है। इसलिए गृह मंत्रालय के बाबुओं को बंदरों को मारने के अपने प्लान से पीछे हटना पड़ा।

'एलिमिनेशन ऑफ मंकीज फ्रॉम शिमला' नाम के इस डॉक्युमेंट में बंदरों के निर्यात पर महात्मा गांधी के हरिजन में छपे एक लेख का भी जिक्र है। इसमें लिखा है कि गांधीजी बंदरों के निर्यात को अमानवीय मानते थे और उन्होंने इसे लेकर कहा भी था कि वह एक भी बंदर को विदेश नहीं भेजने देंगे। शासन स्तर पर ही नहीं बल्कि प्रशासनिक स्तर पर भी बंदरों के आतंक को लेकर चिंताएं जताई गई हैं। इसमें दूसरे विभागों द्वारा जरूरत पड़ने पर बंदरों को मारने के विकल्पों को हवाला भी दिया गया है।

इसके अलावा दस्तावेजों में बंदरों को जंगलों में छोड़े जाने के विकल्प का भी जिक्र है। हालांकि, 77 साल पुरानी समस्या होने के बावजूद अभी भी इस मामले में प्रगति काफी धीमी है। बता दें कि मामले में बीते साल राज्य सरकार के अनुरोध के बाद केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी कर शिमला के स्थानीय अधिकारियों को इस हिंसक जानवर को गैर-वन वाले इलाकों में मारने के लिए एक साल का समय दिया था।

राज्य सरकार ने केंद्र को रिपोर्ट भेजी थी कि किस तरह जंगलों के बाहर रीसस मकाक प्रजाति के बंदर बहुत बढ़ गए हैं और वे बड़े पैमाने पर कृषि के साथ ही लोगों के जीवन और संपत्ति के लिए संकट बन रहे हैं। हालांकि रीसस मकाक बंदर वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची II के तहत संरक्षित प्रजाति है लेकिन खतरा होने पर कानून इन्हें एक साल के लिए हिंसक घोषित करके इनका शिकार करने की अनुमति देता है।

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