पैगम्बरे ईस्लाम ने दिया देश प्रेम और भाईचारा का संदेश (जश्न – ए – ईदमिलादुन्नबी विशेष)
JOGI EXPRESS
सरायपाली , मुस्तफीज़ आलम। हजरत मुहम्मद मुस्तफा हिजरत के कई साल बाद मदीने से मक्का आए थे। एक वह दौर था जब मक्का के लोग उनकी जान के प्यासे हो गए। तब भी उन्होंने युद्घ का मार्ग नहीं अपनाया। उनके चाचा अबू तालिब गुजर चुके थे, उनकी बीवी खदीजा का भी स्वर्गवास हो चुका था। मां और बाप तो बहुत पहले गुजर चुके थे। वे बिल्कुल अकेले पड़ चुके थे तब मक्का के कुरैश उनसे बदला लेने को तैयार हुए। वे हर कीमत पर उनकी जान लेने को आमादा थे। ऐसे में पैगम्बर मुहम्मद साहब (सल्ल.) को अपने रब की ओर से हुक्म हुआ और वे मक्का छोड़कर शांतिपूर्वक मदीना चले गए। मदीना के लोगों ने उनका दिल खोलकर स्वागत किया मगर मक्का के कुरैश यह भी नहीं चाहते थे। उनकी मंशा थी कि मुहम्मद (सल्ल.) को खत्म कर दिया जाए। वे फौज लेकर मदीना की ओर चल पड़े तब अपने साथियों, उनके बीवी-बच्चों और आत्मरक्षा के लिए पैगम्बर मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने रणभूमि की ओर प्रस्थान किया तथा वे विजयी हुए। पैगम्बर मुहम्मद साहब ने कहा था कि जिस देश में रहो, उससे मुहब्बत करो, वहां के कानून का पालन करो, क्योंकि देशप्रेम भी ईमान का हिस्सा है साथ ही जिनका धर्म आपके धर्म से अलग है उनके पास जाने से न हिचको, अपना ही धर्म मानों पर किसी दूसरे धर्म का मजाक न उड़ाओ, सभी धर्मों का सम्मान करो। आपस में सलाम को आम करो और भाईचारे से मिलकर आपस में हंसी खुशी रहो। यूं तो पैगम्बरे ईस्लाम का संपूर्ण जीवन ही नेकी, भलाई, अमन और सच्चाई की मिसाल है, लेकिन उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी हज में जो बातें कहीं वे हर इंसान के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह तब की बात है जब हिजरत का दसवां साल था। प्यारे नबी (सल्ल.) हज के लिए मक्का रवाना हुए। आपके साथ एक लाख से ज्यादा बहादुर साथियों का काफिला था, इतिहास में इस हज को हिज्जतुल-वदा कहते हैं। यह आपका आखिरी हज था। इस हज को हिज्जतुल-बलाग भी कहा जाता है, क्योंकि अल्लाह का जो संदेश आप पहुंचाने आए थे, वह पूरा हो गया था। इस अवसर पर आपने (सल्ल.) लोगों के सामने एक तकरीर भी की। आपने फरमाया – प्यारे भाइयो! मैं जो कुछ कहूं, ध्यान से सुनो, क्योंकि हो सकता है कि इस साल के बाद मैं आपसे यहां न मिल सकूं। याद रखो, मेरी बातों पर अमल करोगे तो फलते-फूलते रहोगे। इसके बाद आपने जिंदगी से जुड़ी कई पवित्र बातें कहीं। उनका सार इस प्रकार है- अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत मजबूती से पकड़े रहना। लोगों की जान-माल और इज्जत का ख्याल रखना। कोई अमानत रखे तो उसमें कभी खयानत मत करना। खून-खराबे और ब्याज के कभी करीब मत जाना। इस दौरान प्यारे नबी (सल्ल.) ने बताया कि मुसलमान आपस में कैसे रहें। आपने यह भी बताया कि वे गैर-मुस्लिम लोगों के साथ कैसे रहें। आपने (सल्ल.) हमेशा की तरह बराबरी पर बहुत जोर दिया और फरमाया किसी अरबी को गैर-अरबी पर और गैर-अरबी को अरबी पर कोई बड़ाई नहीं है। बड़ाई का पैमाना तो केवल तक्वा (यानी खुदा की नाफरमानी से बचना) है। तकरीर के बाद आपने फरमाया ऐ अल्लाह, क्या मैंने तुम्हारा पैगाम पहुंचा दिया? वहां मौजूद एक लाख लोग एक साथ बोले- हां अल्लाह के रसूल, आपने रब का पैगाम पहुंचा दिया। प्यारे नबी (सल्ल.) ने तीन बार फरमाया- ऐ अल्लाह, तू गवाह रहा। आप नुबूवत का आखिरी फर्ज अदा कर रहे थे तो अल्लाह के पास से यह खुशखबरी आई- आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे दीन को पूरा कर दिया और अपनी नेमत तुम पर पूरी कर दी और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया। प्यारे नबी (सल्ल.) ने यह आयत पढ़ी तो हजरत अबू बक्र रो पड़े। वे समझ गए कि आपका साथ अब ज्यादा दिनों का नहीं है। मकसद पूरा हो गया, इसलिए अब आप जाने वाले हैं। पैगंबर मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने आपसी भाईचारे, शांति, बराबरी, ईमानदारी, ब्याज से दूर रहने की सख्त हिदायत जैसी जो बातें बताईं, वे उस जमाने से कहीं ज्यादा आज प्रासंगिक हैं। अगर इंसान बुराइयों से दूर रहे और अच्छाइयों को अपनाए तो इस धरती के हालात बदल जाएं। शांति, बराबरी, भाईचारा, माफी, ब्याज व शराब से दूरी और तमाम नेक बातों को किसी एक धर्म के नजरिए से न देखें। पैगम्बर साहब-सल्ल. का यह पैगाम पूरी दुनिया के लिए है। खुद का दिल इतना बड़ा रखें कि उसमें सभी धर्मों की नेक बातों के लिए जगह हो और आप उनका सम्मान कर सकें।