सीबीआइ भी नहीं जान पाई आरुषि हत्याकांड का सच

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नई दिल्ली। आरुषि हत्याकांड में राजेश और नुपुर तलवार को हाईकोर्ट ने यूं ही नहीं बरी कर दिया है। हकीकत यही है कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी दोहरे हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने में पूरी तरह नाकाम रही। ढाई साल की जांच और कई उलटफेर के बाद अंतत सीबीआइ ने हाथ जोड़ लिया था और अदालत से केस को बंद करने की अपील (क्लोजर रिपोर्ट) की थी। यही कारण है कि सीबीआइ हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं करने पर विचार कर रही है।

दरअसल हत्याकांड की पूरी गुत्थी शराब के गिलास पर उंगली के एक निशान पर आकर टिक गई थी। इस गिलास पर आरुषि और हेमराज दोनों के खून से सनी उंगली के निशान थे। यानी जिसने भी शराब पी थी, उसी ने दोनों की हत्या की थी और हत्या करने के बाद भी घर में मौजूद था। लेकिन सीबीआइ पूरी जोरआजमाइश के बाद भी इस उंगली वाले शख्स को तलाशने में विफल रही। सीबीआइ की माने तो हत्याकांड के बाद उत्तरप्रदेश पुलिस की लापरवाही के कारण सबूतों के साथ हुए छेड़छाड़ ने इस केस की गुत्थी को जटिल बना दिया। आरुषि हत्याकांड को सुलझाने में असमर्थता न सिर्फ सीबीआइ की क्षमता, बल्कि कार्यशैली पर भी सवालिया निशान है। ढाई साल के दौरान सीबीआइ अपने ही जांच के निष्कर्षो से पलटती रही।

जांच की कमान सबसे पहले एक जून 2008 को सीबीआइ के तत्कालीन संयुक्त निदेशक अरुण कुमार ने संभाली और 10 दिन के भीतर ही उन्होंने तीन नौकरों कृष्णा, राजकुमार और विजय मंडल को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन उनकी टीम हत्या में उपयोग किए गए हथियार के साथ आरुषि और हेमराज का मोबाइल भी नहीं ढूंढ पाई। अरुण कुमार ने केवल नार्को टेस्ट के आधार पर उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल करना चाहा। यही नहीं, अदालत में उन्होंने राजेश तलवार को क्लीन चिट देकर जमानत पर रिहा भी करवा दिया। जबकि उत्तर प्रदेश पुलिस ने राजेश तलवार को आरोपी मानते हुए गिरफ्तार किया था। अरुण कुमार की टीम ने तीन नौकरों के खिलाफ आरोपपत्र की तैयारी भी कर ली थी।

अगस्त 2008 में सीबीआइ निदेशक बने अश्विनी कुमार ने तीनों नौकरों के खिलाफ सबूतों को पर्याप्त नहीं पाया और पुरानी टीम को जांच से अलग कर दिया। उन्होंने एसपी नीलाभ किशोर को नया जांच अधिकारी नियुक्त कर संयुक्त निदेशक जावेद अहमद को उसकी कमान सौंप दी। नीलाभ किशोर की टीम ने जांच की दिशा को नोएडा पुलिस की जांच के रास्ते पर लौटाते हुए नए सिरे से राजेश तलवार की भूमिका की जांच शुरू की। सितंबर 2008 में बुलंदशहर में आरुषि की मोबाइल मिलने के बाद उम्मीद जगी कि नई टीम जल्द ही हत्या की गुत्थी को सुलझा लेगी। लेकिन दो साल से अधिक की मशक्कत के बाद भी नतीजा सिफर निकला। वैसे नीलाभ किशोर की टीम ने गोल्फ खेलने के क्लब से हत्या की आशंका की नई थ्यौरी पेश की। इससे संदेह की सुई तलवार दंपत्ति की तरफ झुक गया और निचली अदालत ने इसी के आधार पर उन्हें आजीवन कारावास की सजा भी सुना भी दी।

आरुषि हत्याकांड की जांच को एक बड़ी नाकामी स्वीकार करते हुए जांच से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि उनके पास कोई रास्ता भी नहीं बचा था। उन्होंने कहा कि संदेह के घेरे में राजेश तलवार और उसके तीनों नौकर भी हैं। लेकिन इनमें से किसी के खिलाफ ठोस सबूत नहीं मिल पाया। उन्होंने स्वीकार किया कि जांच से जुड़ा कोई भी अधिकारी नहीं जानता है कि आखिरकार आरुषि और हेमराज की हत्या किसने की।

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