नए साल में जोश भर देगी खिलाड़ियों की ये बातें, उमंग से भर जाएगा मन

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खट्टी-मीठी यादों के साथ साल 2019 खत्म हो गया। ये सिर्फ एक तारीख का ही अंत नहीं था बल्कि विदाई थी पूरे एक दशक की। नया दिन, नई उमंग, नई ऊर्जा के साथ नई सोच भी लेकर आया है। लाया है अहसास नई शुरुआत का। 2020 में हर कोई यही चाहेगा कि जिंदगी उतनी ही रोमांचक हो, जितनी इस साल की तारीख। मगर वह कहते हैं न कि हर गुजरा वक्त हमें कुछ न कुछ सिखाता है तो चलिए हम भी नए साल के पहले दिन अतीत के पन्ने पलटते हैं और खेल जगत की उन हस्तियों के ऐतिहासिक बयान, उद्बोधन पर नजर डालते हैं, जो हमारे भविष्य के लिए मिल का पत्थर हो सकते हैं। हमें और बेहतर कल के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

मैरीकॉम
संघर्ष और जीवटता का दूसरा नाम है, एमसी मैरीकॉम। 36 वर्षीय छह बार की इस विश्व चैंपियन ने जिन विपरित हालातों को ठेंगा दिखाते ये सफर तक किया, वह हम सभी के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं। तीन बच्चों की मां 'सुपरमॉम' मैरीकॉम के पास ऐसे कई रिकॉर्ड हैं, जिसके आसपास भी कोई दूसरी भारतीय महिला नहीं। मणिपुर के आदिवासी इलाकों की इस मुक्केबाज की जिंदगी पर बॉलीवुड में भी फिल्म बनी। 'मैग्निफिसेंट मैरी' को कहा जाता था कि बॉक्सिंग महिलाओं की बस की बात नहीं, लेकिन समाज की इस सोच को बदलते हुए मैरी ने कहा था कि, 'कभी सोना मत खरीदो, इसे हासिल करो', उन्होंने इसे साबित भी किया।

माइकल जॉर्डन
सफलता पर लगभग सभी खिलाड़ियों की राय एक समान है और वह है परिश्रम। कोशिश और कभी हार न मानने का जज्बा। अपने दौर के दिग्गज बास्केटबॉल खिलाड़ी माइकल जॉर्डन ने कामयाबी की हर उस बुलंदी को छुआ, जिसकी ख्वाहिश कोई एथलीट को होती है। 17 फरवरी 1963 को न्यूयॉर्क के ब्रुकलिन में जन्में माइकल के जीवन से एक बात तो पता चलती है कि यदि माता-पिता दोनों मिल कर अपने बच्चों को सही परवरिश दें और आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें तो हर बच्चा 'द जॉर्डन' बन सकता है। एनबीए के हर सीजन में सबसे ज्यादा स्कोर बनाने का रिकॉर्ड रखने वाले जॉर्डन ने अपने करियर में दो बार अमेरीकी बास्केटबॉल टीम की ओर से ओलंपिक में हिस्सा लिया और दोनों बार (1984 और 1994) गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रचा।

विराट कोहली
काम के प्रति ईमानदारी हमें विराट कोहली से सीखनी चाहिए। आज यह भारतीय कप्तान किसी पहचान का मोहताज नहीं, लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। कई कुर्बानियां दीं। पिता की असमय मृत्यु हो गई, सभी ने विराट को मैच छोड़कर परिवार के पास जाने की सलाह दी, लेकिन विराट दिल्ली को हार से बचाने के लिए मैदान पर उतर गए। 281 मिनट तक बल्लेबाजी की और 238 गेंदों का सामना करते हुए 90 रन बनाए। आउट होने के बाद पिता का अंतिम संस्कार करने निकल पड़े। उस एक काली रात ने 18 साल के चीकू को एक परिपक्व और गंभीर खिलाड़ी में तब्दील कर दिया। इसके बाद विराट कोहली ने कभी मुड़कर पीछे नहीं देखा और हर रोज नई ऊंचाइयों को छूते गए। बतौर क्रिकेटर और खिलाड़ी युवाओं के प्रेरणास्रोत बन चुके विराट फिटनेस के लिए काफी सजग हैं। बकौल विराट, 'बल्ला कोई खिलौना नहीं है, यह एक हथियार है', यह मुझे जीवन में सब कुछ देता है, जो मुझे मैदान पर सब कुछ करने में मदद करता है।'

राहुल द्रविड़
भारतीय क्रिकेट के पूर्व कप्तान द्वारा कहे गए ये शब्द आज भी कई मोटिवेशनल कार्यक्रमों में सुनाए जाते हैं। आप अपने आसपास ही ऐसे उदाहरण ढूंढने निकलोगे तो कई लोग बतौर रोल मॉडल मिल जाएंगे, जो अपने जीवन में सफल होने की इच्छा तो रखते थे और सफल इंसान भी बनाना चाहते थे पर हालात और समय के चक्र में फंस गए। भारतीय क्रिकेट की 'दीवार' और 'श्रीमान भरोसेमंद' के नाम से विख्यात राहुल द्रविड़ आज अपनी सोच और नैसर्गिक प्रतिभा के दम पर टीम इंडिया की नई पौध खड़ी कर रहे हैं। जिस तरह राहुल द्रविड़ खतरनाक गेंदों को छोड़ते थे और कमजोर गेंदों पर तगड़ा प्रहार करते थे, हमें भी उसी फलसफे पर चलना चाहिए।

महेंद्र सिंह धोनी
किसी जमाने में टीम इंडिया में आने वाला हर दूसरा क्रिकेटर मुंबई, दिल्ली और चेन्नई जैसे महानगरों का होता था। इस परिपाटी को तोड़ा आदिवासी बहुल प्रदेश से आने वाले महेंद्र सिंह धोनी ने। झारखंड की राजधानी रांची से टिकट कलेक्टर और फिर भारतीय टीम के कप्तान तक का सफर कतई आसान नहीं था, लेकिन अनहोनी को ही होनी करने वाले को धोनी कहते हैं। जीवनगाथा इतनी नाटकीय कि बॉलीवुड में एक फिल्म तक बन गई। अपने अनोखे फैसलों से दुनियाभर को हैरान कर देने वाला यह बाजीगर पहले धुआंधार पारी के लिए पहचाने जाने लगा। समय के साथ उनकी विकेट कीपिंग भी संवरती गई और बैटिंग में भी परिपक्वता आई। माही से हम मुश्किल हालातों में भी मुस्कुराना, संयम बनाए रखना, कुशल नेतृत्व करने के साथ-साथ पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में सामंजस्य बिठाने जैसी चीजें सीख सकते हैं।

दीपा करमाकर
दीपा करमाकर, यानी ओलंपिक में क्वालीफाई करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट। त्रिपुरा से आने वालीं इस एथलीट ने 22 साल की उम्र में ओलंपिक क्वालीफाइंग इवेंट में 52.698 अंक हासिल कर रियो का टिकट हासिल किया था। 52 साल बाद ऐसा मौका आया था, जब किसी भारतीय ने ओलंपिक की इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था। हालांकि उन्हें निराशा ही हाथ लगी, लेकिन असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी होती है। दीपा ने जिस प्रोडूनोवा वॉल्ट को सफलतापूर्वक किया था, वह कितना मुश्किल होता है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे 'मौत का वॉल्ट' कहा जाता है। दुनिया की बड़ी से बड़ी जिमनास्ट भी प्रोडूनोवा वॉल्ट को करने से कतराती हैं, इसमें जान जाने का भी खतरा रहता है और जरा सी चूक पदक छोड़िए जिंदगी से भी महरूम कर सकती हैं। मगर मजबूत हौसलों वाली देश की इस बेटी ने कहा था कि, 'अगर आप जिंदगी में कुछ हासिल करना चाहते हैं तो आपको रिस्क लेना पड़ेगा।'

योगेश्वर दत्त
कुश्ती, माने वो खेल, जो भारत के रग-रग में समाया है। कुश्ती खेल के अनुशासन में बंधा नहीं होता, लेकिन पहलवान बनने के लिए कड़ा बलिदान मांगता है। देसी अखाड़े की मिट्टी को शरीर पर मलकर देश के कई पहलवानों ने दुनियाभर में तिरंगा लहराया। इन्हीं में से एक हैं योगेश्वर दत्त। आज वो बेशक कामयाबी के शिखर पर हो, लेकिन इस मुकाम को हासिल करने के लिए इन्होंने बहुत कुछ त्यागा। हरियाणा का यह पहलवान 2006 एशियाई खेलों में सोना जीतने के इरादे से दोहा पहुंचे थे। नौ दिन बाद खबर मिली की पिता का देहांत हो गया। इसके बावजूद वह रिंग में उतरे और विरोधी को चित कर कांसा जीता। 2012 में लंदन ओलंपिक में इस कांसे का रंग सोने में बदल गया। हर दंगल में नई शुरुआत करने वाले योगेश्वर ने एक बार कहा था कि, 'हम बिना डरे बहादुर नहीं बन सकते।' यही उनकी जिंदगी का उसूल है। हम बिना अपनी कमजोरी का सामना किए उसे नहीं हरा पाएंगे।

अभिनव बिंद्रा
परिश्रम, एकाग्रता और समर्पण के पंख से ही सफलता की उड़ान भरी जा सकती है। भारत के लिए पहला व्यक्तिगत ओलंपिक गोल्ड जीतकर अभिनव बिंद्रा ने इतिहास रचा था। अभिनव सबसे कम उम्र में अर्जुन अवॉर्ड और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार पाने वाले खिलाड़ी हैं। 28 सितंबर, 1982 को देहरादून के संभ्रांत पंजाबी परिवार में जन्में अभिनव के लिए पिता ने घर पर ही एक इनडोर शूटिंग रेंज बनवा दिया था। 2000 सिडनी ओलंपिक के सबसे युवा भारतीय बिंद्रा 2004 एथेंस ओलंपिक में रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन के बावजूद पदक जीतने से चूक गए, लेकिन 2008 बीजिंग ओलंपिक में इस कसक को दूर करते हुए अभिनव ने 10 मीटर एयर राइफल इवेंट में स्वर्ण पदक जीतकर स्वर्णिम इतिहास रचा था। 2002, 2006 और 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पर निशाना लगाने वाले अभिनव बिंद्रा ने 33 साल की उम्र में रिटायरमेंट ले लिया था। पहले गोल्डन ब्वॉय अभिनव ने कहा था कि, 'मेरे पास केवल एक प्रतिभा है। मैं किसी और से ज्यादा मेहनत कर सकता हूं'।

लिएंडर पेस
लिएंडर पेस के खून में ही खेल है, जिसने भी इस खिलाड़ी को खेलते देखा बस देखता रह गया। जब जूनियर थे तो यूएस ओपन और जूनियर विंबलडन का खिताब जीता। विश्व टेनिस में जूनियर में नंबर 1 टेनिस खिलाड़ी बने। पिछले 30 साल में पेस ने भारत को वह सब कुछ दिया जो टेनिस में वो दे सकते थे। माता-पिता दोनों ने भारत का अलग-अलग खेलों में प्रतिनिधित्व किया। 46 वर्षीय पेस 18 ग्रैंड स्लैम और 44 डेविस कप के मुकाबले जीत चुके है। उम्र को चुनौती देने वाले पेस के भीतर ओलंपिक बसा हुआ है। टेनिस के इतिहास में रिकॉर्ड तोड़ सात ओलंपिक खेलने वाले पेस की माने तो उनकी जिंदगी कभी भी आसान नहीं रही। ठंड के मौसम में विदेशी दौरे पर जाने के लिए साधन नहीं होते थे, लेकिन आपने वो कहावत तो सुनी है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। हर चीज की जिंदगी में अपनी कीमत होती है। हर खिलाड़ी को कुछ ऐसे दौर से गुजरना पड़ता है। 'मैं आज से 10-15 साल पहले जितनी मेहनत करता था उसका तिगुना परिश्रम आज करना पड़ता है। यही उम्र है, लेकिन मुझे अपने काम से इश्क है।'

पीटी उषा
क्रिकेट प्रधान इस देश में 'ट्रैक एंड फिल्ड' जैसे इवेंट का कोई वजूद नहीं था, लेकिन इस भ्रांति को तोड़ा पीटी उषा ने। दक्षिण भारत से आने वालीं इस महिला एथलीट ने साबित किया कि चाहो तो सबकुछ है आसान। 16 की बरस में इस धाविका ने ओलंपिक में न सिर्फ भारत का प्रतिनिधित्व किया, बल्कि एक ऐसी छाप जोड़ी जो आजतक हमारे जेहन में ताजा है। 'क्वीन ऑफ इंडियन ट्रैक एंड फील्ड' कहलाई जाने वाली उषा ने अपना सफर केरल के एक छोटे से गांव से शुरू किया। 1986 में सियोल एशियाई खेलों में तीन स्वर्ण के अलावा रिले में एक स्वर्ण व रजत पदक जीतने वाली भारत की इस 'उड़न परी' से एक बार किसी रिपोर्टर ने सवाल किया कि, 'आप ओलंपिक मेडल क्यों जीतना चाहतीं हैं तब उन्होंने कहा था कि, 'मैंने अपनी पूरी जिंदगी इसी मकसद को पूरी करने के लिए लगा दी और अब यही मेरे जीवन का लक्ष्य है। यह मेरे जीवन का एकमात्र काम है और मैंने इसे जारी रखा है। हर दिन-हर रोज!'

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