प्रलोभन में फंसे जीव को भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती – आचार्य दीक्षित
रायपुर
प्रलोभन में फंसे जीव को कभी भी भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती, जो प्रलोभन को ठुकराकर भगवान की भक्ति करते है भगवान उन्हें सहज में मिल जाते है। संसार के पीछे भागने से न तो संसार पकड़ में आता है और न ही भगवान प्राप्त होते है, यदि भगवान को प्राप्त कर लिया तो संसार के सारे सुख स्वयं जीव के पास आ जाते है। लेकिन यह जीव इतना अभागा है कि वह जानते हुए भी प्रलोभन में रहकर भगवान को प्राप्त करना चाहता है।
समता कॉलोनी गरबा मैदान में चल रही श्रीमद् भागवत कथा में धु्रव प्रसंग पर आचार्य विष्णु प्रसाद दीक्षित जी ने ये बातें श्रद्धालुओं बताई। उन्होंने राजा उत्तानपाद, सुरुचि, सुनीति, धु्रव, उत्तम के प्रसंग को सरल शब्दों में श्रद्धालुओं के समक्ष रखते हुए कहा कि ये सब कथाएं मनुष्य के जीवन को संवारने वाली कथाएं है, यदि मनुष्य ने इन कथाओं को अपने जीवन में उतार लिया तो फिर उसे और कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। जीव अपनी रुचि के अनुसार भगवान को प्राप्त करना चाहता है न कि धर्म और शास्त्रानुसार, भगवान रुचि से प्राप्त नहीं होते, भगवान धर्म और शास्त्रानुसार ही प्राप्त होते है। जब तक जीव का मन संसार की वासनाओं में लगा हुआ है तब तक उसे संतों और कथाओं की बातें अच्छी नहीं लगती। साधना, तपस्या, पूजा, धर्म के माध्यम से ही इन वासनाओं पर काबू पाकर भगवान की भक्ति संभव है।
आचार्य विष्णु प्रसाद दीक्षित जी ने कहा कि जब जीव के मन में भगवान को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होने लगती है और फिर भले ही भगवान को प्राप्ति के साधन उसे नहीं मालूम ऐसे में सद्गुरु स्वयं ही प्रकट हो जाते है जो भक्त को भगवान से जोड़ते है। आज स्थिति यह है कि गुरु शिष्यों को भगवान से जोड?े के बजाए स्वयं से जोड़ता है और अपने पद को ऊपर उठाने की चाहत लिए हुए है। भगवान के जो भक्त होते है उनमें किसी भी प्रकार की कोई कामना नहीं होती, वे केवल भगवान को ही प्राप्त करना चाहते है। जो भगवान से विमुख होते है उन्हें संसार की कामनाओं में रुचि रहती है और वे संसार के पदों को प्राप्त करना चाहते है। भगवान कोई वस्तु या खिलौना नहीं है वे शाश्वत है आवश्यकता केवल कामना रहित साधना, तपस्या और पूजा की है। उन्होंने कहा कि जो जीव अपने बल और संपत्ति पर अभिमान करता है और भगवान की साधना और तपस्या को कम आंकता है वह सबसे बड़ा अपराधी है। भगवान और धर्म तपस्या पर किसी भी प्रकार की टिका-टिप्पणी कभी नहीं करनी चाहिए, कभी भी उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए, यह सबसे बड़ा पाप है।