एक ऐसी जगह, जहां बच्चे खिलौना गाड़ी नहीं असली गाड़ी चलाते हैं
क्या आपको कभी ट्राम से सफर करने का मौका मिला है? अगर नहीं तो कोलकाता में आप ट्राम की सवारी कर सकते हैं। ट्राम से सवारी करने का अपना ही मजा है। एक दौर था जब ट्राम की सवारी का खूब चलन था, लेकिन कम रफ्तार होने की वजह से धीरे धीरे ट्राम खत्म होती गईं। अब कुछ ही जगहों पर ट्राम देखने को मिलती है। इनमें से एक है हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट। सबसे ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि इसे स्कूल के बच्चे चलाते हैं। पड़ गए ना आप भी हैरत में। चलिए बताते हैं आपको क्या है इसके पीछे की कहानी।
बुडापेस्ट के बाहरी इलाके में एक ट्राम लाइन है। ये बुडापेस्ट की दस ट्राम लाइनों में से एक है। इसके पास एक स्कूल है जिसका नाम है जेरमेकवासुतास ओत्थोन। ये कोई आम स्कूल नहीं है जहां बच्चों को अंग्रेजी, साइंस या गणित पढ़ाई जाती है, बल्कि ये बच्चों का एक्सट्रा क्यूरिकुलर ट्रेनिंग ग्राउंड है। इसे ट्रेन लाइन 7 भी कहा जाता है। ये 11.7 किलोमीटर की ट्राम लाइन है, जिस पर 20 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से ट्राम दौड़ती है।
ये ट्राम लाइन दुनिया की सबसे तेज और पुरानी ट्राम लाइन है। खास बात ये है कि ये लाइन पूरी तरह से बच्चों के कंट्रोल में है। ये स्कूली बच्चे ही इसे चलाते हैं। सुपरवाइजर बालाज सारिंजर का कहना है कि कुछ लोगों के लिए ये बात अजीब हो सकती है कि 10 से 16 साल की उम्र के बच्चे स्टेशन मास्टर हैं। ट्राम में एलान करने से लेकर रेल रोड स्विच चलाने, टिकट बेचने और सिग्नल कंट्रोल करने तक सभी काम ये स्कूली बच्चे ही करते हैं। बस एक अहम रोल बच्चे नहीं निभाते। इन बच्चों को ट्राम चलाने की जिम्मेदारी नहीं दी जाती। बुडापेस्ट में सोवियत हुकूमत के जमाने से ट्राम चलाने की जिम्मेदारी स्कूली बच्चे निभाते आ रहे हैं।
बुडापेस्ट के लिए ये कोई नई बात नहीं है। इसकी शुरुआत साल 1932 में सोवियत संघ ने की थी। इसी साल मॉस्को के गोर्की पार्क में बच्चों की पहली रेलवे लाइन खोली गई थी। सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरे पूर्वी यूरोप में करीब 52 ऐसे रेल रोड बनाए गए। बुडापेस्ट के इन ट्राम की एक और खास बात है। ये आज भी भाप के इंजन से चलती हैं।
इतिहासकारों का कहना है कि इन ट्रैक की खासियत यहां की चमक-दमक नहीं है, बल्कि एडवांस तकनीक के जमाने में आज भी पिस्टन से ट्राम को चलाया जाना इसकी खूबी है। जैसा कि हमने आपको बताया कि बच्चों से ट्राम चलवाने की शुरुआत हंगरी में उस वक्त हुई थी, जब यहां कम्युनिस्ट पार्टी का राज था। लिहाजा कहा जा सकता है कि नई नस्ल तक कॉमरेडों के संस्कार और अनुशासन पहुंचाने के लिए आज भी इस चलन को खत्म नहीं किया गया है।
हालांकि उस दौर में इन्हीं बच्चों में से वामपंथी नेता चुने जाते थे। ये चलन और कई रेल लाइनें अब बंद हो चुकी हैं। वहीं कुछ बंद होने के कगार पर हैं। लेकिन हंगरी की सरकार अपनी इस धरोहर को आज भी संजोए रखना चाहती है। इनके मुताबिक बच्चों से रेलवे में काम कराने से एक तो उन्हें काम करने का असल तजुर्बा होता है। वो सिर्फ किताबों के रट्टू तोता बनकर नहीं रहते। दूसरे कम उम्र में ही उन्हें काम करने का अच्छा खासा तजुर्बा हो जाता है।
जेरमेकवासुतास में आम-तौर पर कोई भी शख्स नाश्ते से पहले नहीं जा सकता, लेकिन अगर ऐसा करने का मौका मिले तो आप देखेंगे कि ये बच्चे कितने अनुशासन में रहते हैं। सुबह आठ बजे सभी बच्चे सबसे पहले अपने अपने क्लास रूम में जमा होते हैं। यहां से फ्रॉग मार्च करते हुए स्कूल के आंगन में पहुचंते हैं। जिन बच्चों की स्टेशन पर ड्यूटी होती है वो सभी नीले रंग की जैकेट और मिलिट्री कैप पहने होते हैं। कोई एक अध्यापक सभी बच्चों को दिनभर में किए जाने वाले कामों के बारे में बताता है। अपने उस्ताद की हिदायतों को ये बच्चे बड़े ही सम्मान से सिर झुका कर सुनते हैं। ड्रिल पूरी हो जाने के बाद सभी की यूनिफॉर्म जांची जाती है।
देखा जाता है कि शर्ट अच्छी तरह से पतलून के अंदर है या नहीं। जूते अच्छी तरह से पॉलिश किए गए हैं या नहीं। कोई भी बच्चा किसी भी बात का जवाब सिर झुका कर ही देता है। इसके बाद सभी बच्चे अपना झंडा फहराते हैं और कौमी तराना गाते हैं। दिलचस्प बात है कि हंगरी का झंडा भी भारत के झंडे की तरह तिरंगा है।
राष्ट्र गान हो जाने के बाद बच्चे अलग अलग ग्रुप में बंट जाते हैं। हरेक ग्रुप में 10 से 14 साल की उम्र के बच्चे होते हैं। ये बच्चे हंगरी के सभी स्कूलों से चुने जाते हैं। यहां इन सभी बच्चों को छह महीने की ट्रेनिंग करनी पड़ती है। उसके बाद काम के मुताबिक इन्हें ग्रेड दिए जाते हैं। छात्र मिहेल सेरजेगी तीन साल पहले अपनी ट्रेनिंग पूरी कर चुके हैं। वो कहते हैं कि उनके पिता ने भी इस ट्राम रेलवे में काम किया है और वो अपने पिता के नक्शे कदम पर ही चलना चाहते थे। उन्होंने ये ट्रेनिंग स्कूल से छुटकारा पाने के लिए नहीं ली थी बल्कि वो व्यवहारिक जानकारी रखना चाहते थे इसलिए यहां काम किया था।
इसी तरह जब आप 11 साल की जैस्मिन से मिलेंगे तो उसे काम करता देख हैरत में पड़ जाएंगे। वो यहां टिकट बेचती हैं। मुसाफिरों से अपने खास अंदाज में अंग्रेजी में बात करती हैं। वो आत्मविश्वास से लबरेज नजर आती हैं। उनका कहना है कि ट्रेनिंग शुरू करने से पहले उसे जोड़-घटाव करने में बहुत दिक्कत आती थी। उनकी गणित बहुत कमजोर थी, लेकिन यहां काम करने से उसके लिए गणित के सवाल-जवाब आसान हो गए हैं। हंगरी के लोगों को अपने इतिहास पर बहुत फख्र है। आज वहां के हालात काफी बदल गए हैं, लेकिन इन ट्राम स्टेशनों पर आज भी कम्युनिस्ट शासन के दौर का काम का तरीका नजर आता है। यहां के काम का ताना-बाना टीम वर्क है।