हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की मिसाल हैं यह कानपुर का मंदिर-मस्जिद
कानपुर –
कानपुर में जुलूस-ए-मोहम्मदी के सद्भाव की निशानी मंदिर-मस्जिद है। एक घटना ने इसे सौहार्द की मिसाल बना दिया। शहर के घने बाजार वाले क्षेत्रों में शुमार मेस्टन रोड में बीच वाला मंदिर और मस्जिद मछली बाजार आमने-सामने हैं। तकरीबन 106 साल पहले अंग्रेजों ने सड़क चौड़ी करने के लिए यहां मस्जिद का वुजूखाना तोड़ दिया था। इससे नाराज हिंदू-मुस्लिमों ने एक होकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया। अगले साल इसी घटना की याद में जुलूस का निकाला गया, उस दिन 12 रबी उल अव्वल का दिन था। इसी वजह से यह जुलूस-ए-मोहम्मदी कहलाने लगा।
बात 1913 की है। कानपुर इंप्रूवमेंट ट्रस्ट ने गंगा तट पर सरसैय्याघाट से बांसमंडी को मिलाने वाली सड़क के विस्तार की योजना तैयार बनाई। जो नक्शा तैयार किया गया उसमें मस्जिद का कुछ हिस्सा रुकावट बन रहा था। यहीं सामने मंदिर भी था। अंग्रेजों ने हिंदुओं-मुसलमानों को लड़ाने के लिए मस्जिद के एक हिस्से को तोड़ दिया लेकिन मंदिर को छुआ तक नहीं। अंग्रेजों की इस हरकत के खिलाफ दो वर्ग एकजुट हो गए और विरोध कर दिया। 1914 में इसकी बरसी पर जुलूस निकालकर घटना को याद किया गया था।
सौहार्द की मिसाल कायम
मंदिर-मस्जिद एक ही स्थान पर हैं पर न तो किसी को अजान से परेशानी होती है और न ही किसी को आरती से। दोनों समुदाय एक-दूसरे का सम्मान करते हुए इन बातों का लिहाज रखते हैं। मंदिर की जिम्मेदारी रोहित साहू के पास है। मूवमेंट फॉर एजुकेशन फॉर मुस्लिम के महासचिव डॉ. इशरत सिद्दीकी बताते हैं कि मंदिर-मस्जिद सौहार्द की अनूठी मिसाल आज भी है। इससे सीख लेने की जरूरत है।
सामने से गुजरता है जुलूस
एकता की मिसाल जुलूस-ए-मोहम्मदी आज भी मेस्टन रोड से होकर गुजरता है। एक तरफ मंदिर तो दूसरी ओर मस्जिद। जुलूस का नेतृत्व करने वाली संस्था जमीअत उलमा के प्रदेश अध्यक्ष मौलाना मतीनुल हक ओसामा कासिमी के मुताबिक 1913 की घटना के बाद आजादी की जंग में शामिल कई शीर्ष नेताओं ने कानपुर का दौरा किया। इसे हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल ही कहेंगे कि दोनों ने मिलकर वकीलों की टीमें बनाईं। काफी मशक्कत के बाद गिरफ्तार लोगों की रिहाई हो सकी। 1914 में 12 रबी उल अव्वल के दिन घटना की याद में परेड ग्राउंड पर फिर लोग एकत्रित हुए। खिलाफत तहरीक के मौलाना अब्दुल रज्जाक कानपुरी, मौलाना आजाद सुभानी, मौलाना फाखिर इलाहाबादी और मौलाना मोहम्मद उमर के नेतृत्व में जो पहला जुलूस निकाला गया वही आगे जुलूस-ए-मोहम्मदी के नाम से जाना जाने लगा।