स्वयं से जुड़ने का नाम ही योग है- डॉ. पुरुषोत्तम चंद्राकर
रायपुर अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर मानवता के लिए योग थीम पर न्यू चांगोराभाठा रायपुर के महादेवा तालाब प्रांगण में प्रकाश डालते हुए डॉ. पुरुषोत्तम चंद्राकर ने कहा – योग एक दिव्य अनुपम साधन है जो जीवन की अनन्त ऊर्जा का जागरण कर परमानन्द प्रदान करता है। यह सर्वोच्च शक्ति के साथ व्यक्तिगत आत्मा की एकता अर्थात् समन्वय की स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है। योग को अपनाएँ और यह हमारे जीवन का स्थायी अंग बने ! यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन अंगों को क्रमशः अपनाने और सिद्ध करने वाले को ‘योगी’ कहा जाता हैं।
स्वयं की ओर लौटना व स्वयं से जुड़ने का नाम ही ‘योग’ है। योग अपनी सत्ता से व अपनी निजता से यथार्थ को प्रकाशमान करने की विद्या है। जब व्यक्ति सत्य से परिचित हो जाता है तो तब मिथ्या चीजें मिट जाती हैं। साधक को योग अनन्त की अनुभूति कराता है। योग की सिद्धि अभ्यास से ही सम्भव है। हम जो कुछ भी आज हैं वह वर्षों के अभ्यास का ही परिणाम है। देह की जड़ता व बुद्धि के भ्रम को दूर किये बिना योग की सिद्धि नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि योग का अर्थ शोक रहित होना है। योग ज्ञान व प्रज्ञा के चक्षु को खोलता है। पूरे विश्व को भारत के योग ने कोरोना काल में संभाल कर रखा।
उन्होंने कहा कि जीवन जीने की राह योग से ही खुलती है। योग व्यक्ति व समष्टि में संतुलन बनाए रखता है। योग से व्यक्ति के जीवन में आध्यात्मिक व विवेकपूर्ण विचारधाराओं का प्रवाह आने लगता है। योग एक गूढ़ अत्यंत उपयोगी व व्यवहारिक विषय है। यह रूपांतरण का विज्ञान है। आज योग, देश, धर्म, जाति की सीमाएँ तोड़कर सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो चूका है। योग तो एक विज्ञान है। इसे जो भी अपनाये वही स्वस्थ और सुखी बनेगा। अतः विद्यार्थी, शिक्षक, व्यापारी, वैज्ञानिक, सैनिक सभी के लिए योग लाभदायक सिद्ध हो रहा है। डॉ. पुरुषोत्तम चंद्राकर ने कहा की आर्थिक शुचिता संयम और उचित निवेश जीवन प्रगति का आधार है। भारतीय संस्कृति में दूसरे का विचार प्रथम है, कर्त्तव्य प्रधान है और पर्यावरण के प्रति कृतज्ञता का भाव रखती है। भारतीय जीवन दृष्टि “अधिकाधिक” नहीं आवश्यकता के अनुसार संयमित उपभोग का दृष्टिकोण रखती है।
डॉ. पुरुषोत्तम चंद्राकर ने इस बात पर जोर दिया कि समाज के सुख में व्यक्ति का सुख निहित है। सभी मिलके एक – दूसरे के सुख का विचार करें। “सब” की परिभाषा में समस्त प्राणी और पर्यावरण भी सम्मिलित है। इसी कारण “दोहन” को अनुमति है, परन्तु “शोषण” मान्य नहीं। क्या शरीर का कोई अंग दूसरे अंग का शोषण कर सकता है? हाथ पैर का कभी शोषण नहीं करता, बल्कि पैर में काँटा चुभे तो हाथ आगे बढ़ कर काँटा निकलता और आँखों में आँसू होते हैं, यह अंगांगी भाव है। पाश्चिमात्य विचार मानव केन्द्रित होने के कारण सुख की परिभाषा भिन्न है। ये सृष्टि मेरे लिए, मेरे आनन्द के लिए अर्थात् उपभोग के लिए है। उपभोग में ही सुख है और मैं अपने सुख के लिए औरों का शोषण कर सकता हूँ। भारतीय मनीषा को यह स्पष्ट बोध हो गया था कि कामनाएँ उपभोग से शान्त नही होती। उपभोग में ‘रोग’ है और उपयोग में ‘योग’ समाया हुआ है ।
डॉ. पुरुषोत्तम चंद्राकर ने कहा कि जिस व्यक्ति में संकल्प और संयम नहीं, वह मृत व्यक्ति के समान है। ऐसा व्यक्ति जीवनभर विचार, भाव और इंद्रियों का गुलाम बनकर ही रहता है। संयम और संकल्प के अभाव में व्यक्ति के भीतर क्रोध, भय, हिंसा और व्याकुलता बनी रहती है, जिसके कारण उसकी जीवनशैली अनियमित और अवैचारिक हो जाती है। बिना संकल्पित हुए बिना योग का आरम्भ करना उचित नहीं है, क्योंकि इसके बिना अभ्यास फलदायक नहीं हो सकता। संकल्प है तो संयम अर्थात् धैर्य भी रखना आवश्यक है। संयम का योग में बहुत ही महत्व है। योग आसन या प्राणायाम न भी करें तो चलेगा, लेकिन संयमित जीवनशैली है तो व्यक्ति सदा निरोगी और प्रसन्नचित्त बना रहता है। इसलिए संसार के प्रति तटस्थ भाव सदा रखें। सांसारिक बातों की अधिक चिन्ता नहीं करें, निश्चय होकर मन को स्थिर रखने का अभ्यास करें। सांसारिक घटनाक्रम मन को व्यग्र करते हैं, जिससे शरीर पर नकारात्मक असर पड़ता है। संसार आपको बदले इससे पहले आप स्वयं बदल जायें। उपर्युक्त सभी संयमों का दृढ़ता से पालन करने से व्यक्ति को रोग, शोक, संताप नहीं सताते और वह निरोगी रहकर लम्बी आयु जीता है। अतः सर्वप्रथम संयम को अपना कर तब योग का अभ्यास करना चाहिए …।
डॉ. पुरुषोत्तम चंद्राकर ने कहा – भारतीय अर्थ विचार के अनुसार साध्य और साधन शुचिता का महत्व है। अपने परिवार तथा समाज के भलाई के लिए अर्थार्जन आवश्यक है। लेकिन वह धन अच्छे कर्म से, मेहनत से कमाना अपेक्षित है। कर्म भगवान की पूजा के समान है और पूजा की सामग्री भी पवित्र हो। सेवा में सुख है, इसलिए समाज की सेवा के लिए अर्थार्जन ये प्रेरणा है। हमारी आर्थिक व्यवस्था अर्थायाम होनी चाहिए यानि न अर्थ का अभाव हो, न अर्थ का प्रभाव हो। अर्थ के उत्पादन, वितरण, उपभोग में सामंजस्य हो। इसलिए संयमित, सीमित, सदाचारी जीवनशैली अपनानी पड़ेगी। हमें अर्थ विकृति से अर्थ संस्कृति की ओर जाना होगा
हमें जितनी आवश्यकता है उतना ही प्रकृति से लेना है, प्रकृति का शोषण नहीं होना चाहिए। हम यह भूल गए है कि प्राकृतिक संसाधन समाजरूपी ईश्वर का है, हम तो केवल उसके ट्रस्टी है। “धर्में नैव प्रजा सर्वे रक्षन्ति स्म परस्परं…” अर्थात्, धर्म के आधार पर लोग एक-दूसरे के हितों की रक्षा करें। रामराज्य की कल्पना यही थी – “यतो धर्म ततो जय …” जहाँ लोग धर्म के साथ हैं यानी धर्मानुकूल जीवन जीते हैं, वहाँ विजय निश्चित है।
इस अवसर पर महेंद्र कश्यप, ललित साहू, अरुण गोस्वामी, वेद प्रकाश, सुश्री संजू साहू , पद्मिनी वर्मा, पुनीता चंद्रा, ललिता वर्मा, प्रगति शर्मा, सविता श्रीवास्तव, पंकज सिन्हा, श्रेया चंद्राकर, सोनम तिवारी, अनीता साहू, योगेश कौशिक, सुरेश शर्मा आदि विशेष रुप से उपस्थित रहे।