जंगल की गुफाओं में आदिमानव जैसी जिंदगी जी रहे हैं पहाड़ी कोरवा

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आजादी के 70 साल बाद भी विशिष्ट जनजाति पहाड़ी कोरवा परिवार के एक दर्जन से अधिक सदस्य खुले आसमान के नीचे मनोरा विकासखंड के जंगलों में रहने को मजबूर हैं। वे आज भी जंगली फल, जीव जंतुओं को भोजन बनाकर गुजारा कर रहे हैं।

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले के मनोरा विकासखंड अंतर्गत ग्राम ओरकेला से लगे जंगल में आदिमानव के रूप में सभ्यता से कोसों दूर रह रहे पहाड़ी कोरवा परिवारों की जानकारी मिलने पर नईदुनिया की टीम इनसे मिलने पहुंची।

यहां खुले आसमान के नीचे चट्टानों की आड़ व गुफा में एक दर्जन से अधिक कोरवा परिवार के लोग रह रहे हैं। विशेष रूप से बनाए गए तीर धनुष लिए जनजाति समुदाय के लोग 24 घंटे शिकार के लिए तैयार रहते हैं।

ठंड, बारिश और गर्मी से बहुत हद तक अनुकूलन का सिद्वांत यहां देखने को मिलता है। कोरवा जाति के लोग बुखार और कई बीमारियों के शिकार भी दिखे।

पंडरूराम 25 सालों से गुफा में

ओरकेला ग्राम से लगे बिरजनियापाठ जंगल में पंडरू कोरवा पिछले 25 साल से निवास कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि इससे पहले वह दूसरे क्षेत्र के जंगल में थे। उनके साथ उनकी 90 वर्षीय मां भी रहती है, जो बीमार है। पंडरू की पत्नी महवारी, बहन रखनी, बहन, दामाद गेंदा भी इसी गुफा में रहते हैं। पंडरू ने बताया कि उन्हें शहरी जीवन की कल्पना से ही डर लगता है।

यदि गांव के आसपास हमारे लिए घर बना दिया जाए तो अच्छा रहेगा। हमें शासकीय योजनाओं का लाभ नहीं दिया जाता है। हमारे पास थोड़े बर्तन हैं और एक, दो कपड़े हैं। इसी जंगल के एक हिस्से में किशुन का परिवार रहता है। उसकी पत्नी ननकी गर्भवती है लेकिन उसे पता नहीं है कि उसके प्रसव का माह कब आएगा।

लोगों की पहुंच से दूर

घने जंगल में रह रहे इन पहाड़ी कोरवाओं के पास आम लोगों का जाना आसान नहीं है। मनोरा विकासखंड के ग्राम ओरकेला से लगे घने जंगल में 8 किलोमीटर सफर तय करने के बाद दिन के समय में ही इनके निवास स्थल पर जाया जा सकता है। स्थानीय लोगों को माध्यम बनाकर ही इनसे बात हो सकती है।

जंगली जानवरों का बना रहता है खतरा

कोरवा जनजाति के लोगों को गांव और नगर के लोगों से अधिक खतरा महसूस होता है। इसके विपरीत जिन स्थानों पर वे निवास कर रहे हैं, वहां जंगली जानवरों का भय हमेशा रहता है। सबसे ज्यादा हाथी का डर है। किशुन ने बताया कि भालू व अन्य जानवरों के लिए उसने कई तीर बनाए हैं। इस तीर धनुष का उपयोग वे भोजन के लिए शिकार करने में भी करते हैं।

पहले करते थे खेती

जनजाति समुदाय के लोग पहले जंगलों में ही खेती करते थे। लेकिन कुछ साल पहले उनके लिए राशन कार्ड जारी किए गए। उन्हें 25 किलो चावल मिलता है। समुदाय का कोई एक सदस्य माह में जाकर चावल ले आता है। इसी चावल को सड़ाकर वे हड़िया (स्थानीय शराब) बनाते हैं। सड़े चावल को ये लोग भोजन के रूप में भी उपयोग कर लेते हैं।

यदि इन परिवारों का सर्वे सूची में नाम होगा तो हर जरूरी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। उन्हें सामान्य जीवन के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। प्रशासन द्वारा धीरे-धीरे ऐसे समुदाय को संसाधन उपलब्ध कराते हुए समाज की मुख्य धारा से जोड़ने प्रयास किया जा रहा है। – कुलदीप शर्मा, प्रभारी कलेक्टर व सीईओ, जिला पंचायत, जशपुर

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