हिंदी को सिर्फ एक दिन की भाषा के रूप में मनाये जाने की नहीं, हमेशा के लिए अपने व्यवहार में लाये जाने की आवश्यकता है-डॉ. प्रीति सतपथी
रायपुर। दबाके विधि महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापिका डॉ. प्रीति सतपथी ने हिंदी दिवस पर कहा किसी भी देश की भाषा अभिव्यक्ति का वह सशक्त माध्यम होता है,जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों का आदान प्रदान करता है।यह अभिव्यक्ति केवल लिखित,मौखिक,पठित ही नहीं वरन सुनकर या सांकेतिक भी की जाती है।भाषा ही तो है जो व्यक्ति समाज तथा देश को बांधकर रखने का कार्य करती है।
हमारे देश की राज भाषा हिंदी है। हिंदी को दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा माना जाता है। हिंदी शब्द का जन्म संस्कृत के सिंधु शब्द से हुआ है।सिंधु घाटी में रहने वालों को ग्रीक लोग इंदोई कहा करते थे इसी आधार पर यह भी माना जाता है हिन्दू /हिंदी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द से हुई है।हिंदी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है।हिंदी विश्व की सबसे अधिक दूसरी बोली जाने वाली भाषा है।भारतीय संस्कृति की सबसे अनूठी विशेषता इसकी अनेकता में एकता है।देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग भाषाओं के प्रचलन के बावजूद भी हिंदी एक विशिष्ट स्थान लिए हुए है।
स्वतंत्रता के पश्चात् संविधान सभा द्वारा१४ सितम्बर १९४९ को हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है इसलिये प्रतिवर्ष १४सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
डॉ. प्रीति ने कहा भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३४३ के उपबंधों के अनुसार हिंदी को संघ की राजभाषा और देवनागिरी को लिपि का दर्ज़ा दिया गया।अनुच्छेद ३४४ में राजभाषा आयोग के गठन का उद्देश्य भी हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार करना तथा उत्थान करना रहा है।
किन्तु कटु सत्य यही है कि लगभग ७१ वर्षों से हिंदी केवल राजभाषा के रूप में संविधान के पन्नों पर सिमट कर रह गयी है क्योंकि आज भी लोगों की मानसिकता और झुकाव अंग्रेजी की तरफ ही है।अधिकांश परिवारों में जन्म से ही बच्चों को अंग्रेजी के शब्द सिखाकर माता पिता गर्व का अनुभव करते हैं …जब तक समाज की धारणा नहीं बदलेगी तब तक हिंदी ऐसे ही उपेक्षित रहेगी …सरकार कितने भी आयोग समितियों का गठन क्यों ना कर लें किन्तु जब तक जनमानस में चेतना और हिंदी के प्रति झुकाव और सम्मान नहीं आएगा , तब तक हमारी राजभाषा हिंदी सिर्फ प्राचीन किताबों की भाषा बनकर ही रह जाएगी।हिंदी को सिर्फ एक दिन की भाषा के रूप में मनाये जाने की जरुरत नहीं बल्कि इसको हमेशा के लिए अपने व्यवहार में लाये जाने की आवश्यकता है।