हरेली सिर्फ लोक परंपरा का ही नहीं, प्राचीन स्वास्थ्य अभियान का भी है पर्व
रायपुर, 20 जुलाई 2020। देश में सिर्फ “हरेली पर्व” ही ऐसा त्यौहार जो हरियाली का प्रतीक है। इसे छत्तीसगढ अंचल के गांव-गांव में बड़े ही उत्साह से साथ मनाया जाता है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्वति के अनुसार मौसम में बदलाव के साथ ऋतु चक्र में वर्षा का समय श्रावण मास में आता है।
जुलाई के महीने में बारिश सर्वाधिक होती है। इससे कई जगह नदी, नालों व खेत खलिहानों में बाढ़ का पानी भी आता है जिसके कारण जीवाणु, विषाणु, बैक्टिरिया सक्रिय हो जाते हैं। कहीं-कहीं गंदगी के साथ बाढ़ में पानी जमा हो जाता है जिससे वायरस के संक्रमण से महामारी फैलने का खतरा बढ जाता है। मानसून के महीने में ही स्वास्थ्य विभाग द्वारा डायरिया नियंत्रण,शिशुओं संरक्षण टीकाकरण, मलेरिया व डेंगू से बचाव के लिए अभियान चलाया जाता है।
ग्रामीण परम्परा में छत्तीसगढ की सांस्कृतिक धरोहर के रुप में सादगी से मनाया जाने वाले इस पर्व के दिन ग्रामीण मवेशियों और कृषि यंत्रों जैसे हल व अन्य उपकरणों की पूजा करते हैं। विधि विधान से पूजा अर्चना कर घर वापस लौटकर चरवाहों द्वारा सुदुर जंगल से लाई हुई वनौषधिय को ग्रामीणजनों को प्रसाद के रुप में देते हैं। इस वनौषधि को पानी में धोकर एक मिट्टी के घड़े में पानी रातभर उबालकर काढा के रुप में औषधि तैयार कर लेते हैं।
आदिवासियों के मान्यता अनुसार:
लेकिन कई दशकों पहले महामारी यानी वायरस के संक्रमण की चपेट में पूरे समुदाय के आ जाने से अज्ञानतावश लोग इनको बुरी शक्तियाँ या दैविय प्रकोप मानते थे। इसी से बचने के लिए ग्रामीण वनौषधि का सेवन करते थे और आज भी ये परंपरा चली आ रही है। ग्रामीण और चरवाहे जिसे पीढी दर पीढी किसी जड़ी बूटी को देते आ रहे हैं उसके बारे में जानकारी भी नहीं रखते और हरेली के दिन साल में एक बार सेवन जरुर कर लेते है। ग्रामीणों के अनुसार सुबह औषधी का ग्रहण करने के पश्चात दोपहर में कृषि यंत्र की पुजा और शाम को पकवान बनाकर चावल की मीठा चीला बनाकर हरेली त्यौहार मनाते हैं। इस अवसर परछत्तीसगढ़ में खेल का भी आयोजन होता है|
वनौषधि सतावर देता है रोग प्रतिरोधक क्षमता:
गरियाबंद जिले के छुरा ब्लॉक के बीएएमएस की शिक्षा ले चुके आयुर्वेद चिकित्सक डॉ. गुलशन कुमार सिन्हा ने बताया हरेली पर्व में जिस जड़ी बूटी का सेवन किया जाता है उसे आयुर्वेद चिकित्सा पद्वति के अनुसार शास्त्रों में वनौषधि को सतावर कहा जाता है। इससे स्पष्ट होता कि पांरपरिक चिकित्सा के रुप में हमारे पूर्वज वैज्ञानिक सोच पर आधारित औषधि का उपयोग करते रहे हैं। वनौषधि को बुरी शक्तियों का नाशक समझ कर सेवन करते हैं। आज के दौर में वैक्सिन और टीकाकारण अभियान होता है जिसे किसी खास दिन पूरे समुदाय को दिया जाता है।‘’ डॉ. सिन्हा कहते हैं:
इसे हम स्वास्थ्य कार्यक्रम मान सकते हैं जिसमें एक ही दिन में हजारों ग्रामीणों को औषधि खिलायी जाती थी। उन्होंने बताया सतावरी एक बहुमुल्य औषधि है क्योंकि यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।
हरेली एक त्यौहार ही नहीं ये हमारे पुर्वजों के द्वारा शुरु की गई पहली स्वास्थ्य जागरुकता अभियान है जिससे आज सहेजने की जरुरत है। हरेली के दिन घर-घर नीम की पत्तियों को मुख्यद्वार पर लगाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य रोग मुक्त, स्वस्थ्य शरीर, निरोगी मन सहित रोग से दूर रखना है। डॉ. सिंहा बताते हैं अण्डमान निकोबार में निवारत आदिवासी के जीवन शैली और प्रकति से जुड़ाव को समझने की जरुरत है जो आज भी आधुनिकता से कोसों दूर रहने के बाद भी सांसारिक रोगों से मुक्त स्वस्थ्य जीवन व्यतित कर रहे हैं।
यह हैं के सतावर के फायदें –
– शारिरीक क्षीणता दुर करता है।
– अनिद्रा दुर करता है।
– रात की रतौंधी में उपयोगी।
– पेशाब संबंधी बीमारी में।
– महिलाओं की स्तन संबंधी समस्या या दूध न आना।
– पुरुषों में बलवर्धक।