November 22, 2024

भारत में खिलने वाला वो अनोखा फूल, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से आते हैं लोग

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कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत के हर कोने को कुदरत ने नेमतों से नवाजा है। शहरों, गांवों, पहाड़ों और गुफाओं में कुदरत के ऐसे राज छिपे हैं, जिनसे पर्दा उठता है तो इंसान हैरत में पड़ जाता है। आज आपको एक ऐसे फूल की कहानी बताते हैं जो बारह साल में एक बार खिलता है और इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग खिंचे चले आते हैं।

ईश्वर के देश के नाम से मशहूर केरल, हरे-भरे पहाड़ों, समुद्री किनारों और कुदरती नजारों के लिए मशहूर है। इस राज्य की सबसे खूबसूरत जगह है, मुन्नार जो समुद्र की सतह से 1600 मीटर ऊपर है। ये जगह कॉफी और मसालों की खेती के लिए मशहूर है। यहां की हरियाली और सुकून सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यही वो जगह है जहां हिंदुस्तान का सबसे बड़ा राज छिपा है जिसका नाम है नीलकुरिंजी। नीलकुरिंजी दुनिया के दुर्लभ फूलों में शुमार होता है। ये 12 साल में एक बार खिलता है।

साल 2018 में यह फूल खिला था। केरल के लोग इसे कुरिंजी कहते हैं। ये स्ट्रोबिलेंथस की एक किस्म है। इसकी करीब 350 फूलों वाली प्रजातियां भारत में ही हैं। स्ट्रोबिलेंथस की अलग-अलग प्रजातियों के फूलों के खिलने का समय भी मुख्तलिफ है। कुछ चार साल में खिलते हैं, तो कुछ आठ, दस, बारह या सोलह साल में खिलते हैं। लेकिन ये फूल कब खिलकर खत्म हो जाते हैं किसी को पता ही नहीं चलता। वजह है कि ये फूल ज्यादातर सड़क किनारे ही खिलते हैं और सड़कें चौड़ी करने के मकसद से इन फूलों के उगने की जरखेज जमीन खत्म हो गई है। इसके अलावा चाय और मसालों की खेती के लिए बड़े पैमाने पर जमीन ले ली गई है। इस वजह से भी इन फूलों के लिए जमीन नहीं बची। अब इस अजूबे फूल के लिए केरल में जगह संरक्षित की जाती है, क्योंकि इसके खिलने का इंतजार सभी को रहता है।

यूं तो केरल के पहाड़ गहरे हरे और नीले हैं लेकिन इस फूल के खिलने के बाद तमाम वादियां बैंगनी नजर आने लगती है। ये फूल अगस्त के महीने में खिलना शुरू होता है और अक्तूबर तक इसका मौसम रहता है। इस फूल के लिए कुरिंजीमाला नाम का संरक्षित क्षेत्र यानी सैंक्चुअरी भी है जोकि मुन्नार से 45 किलोमीटर दूर है। पर्यावरण कार्यकर्ता और सेव कुरिंजी कैंपेन काउंसिल के सदस्य आर. मोहन के मुताबिक हर किसी की ख्वाहिश रहती है कि वो इस फूल को खिलता हुआ देख ले। तोडस, मथुवंस और मनडियास जाति के आदिवासी इस फूल की पूजा करते हैं।

2006 में केरल के जंगलों का 32 वर्ग किलोमीटर इलाका इस फूल के संरक्षण के लिए सुरक्षित रखा गया था। इसे कुरिंजीमाला सैंक्चुअरी का नाम दिया गया। ये सैंक्चुअरी कुरिंजी कैंपेन काउंसिल की कोशिशों का नतीजा है। वैली ऑफ फ्लॉवर के बाद ये भारत की दूसरी फ्लॉवर सैंक्चुअरी है। यहां नीलकुरिंजी की तमाम प्रजातियां संरक्षित की जाती हैं।

नीलकुरिंजी एक मोनोकार्पिक पौधा है। यानी एक बार फूल आने के बाद इसका पौधा खत्म हो जाता है। फिर नए बीज के पनपने के लिए खास वक्त का इंतजार होता है। भारत में इस फूल का सांस्कृतिक महत्व भी है। हिंदू अखबार के पूर्व संपादक रॉय मैथ्यू ने अपनी किताब में लिखा है कि केरल की मुथुवन जनजाति के लोग इस फूल को रोमांस और प्रेम का प्रतीक मानते हैं। इस जनजाति की पारंपरिक कथाओं के मुताबिक इनके भगवान मुरुगा ने इनकी जनजाति की शिकारी लड़की वेली से नीलकुरिंजी फूलों की माला पहनाकर शादी की थी। इसी तरह पश्चिमी घाट की पलियान जनजाति के लोग उम्र का हिसाब इस फूल के खिलने से लगाते हैं।

इस फूल का खिलना पूरे केरल के लिए खुशहाली का प्रतीक है। इसके खिलने से टूरिज्म का कारोबार फलता-फूलता है। साल 2018 में भी इस फूल के स्वागत के लिए पूरा केरल, खास तौर से मुन्नार जोर शोर से तैयारियां कर रहा था। होटलों में पहले ही बुकिंग हो चुकी थी। सड़कें चौड़ी करने का काम पूरा हो चुका था। रेस्टोरेंट मालिक नए सिरे से सजावट का काम कर रहे थे। करीब दस लाख सैलानियों के आने की उम्मीद थी। लेकिन बदकिस्मती से इस फूल के खिलने के समय ही केरल में कुदरत का कहर नाजिल हो गया। उस साल केरल की बाढ़ में लगभग 483 लोगों की मौत हुई। दस हजार किलोमीटर तक सड़कें तबाह हुईं। यही नहीं, करोड़ों रुपये की संपत्ति स्वाहा हो गई। हालात इतने खराब हुए कि खाने के लाले पड़ गए। कोच्चि एयरपोर्ट दस दिन तक बंद रहा। जो जहां फंसा था वहीं रह गया। ऐसे में सैलानियों के आने का तो सवाल ही नहीं था।

2018 में ही नीलकुरिंजी की कलियां 12 साल के इंतजार के बाद चटखीं, लेकिन इसे देखने के लिए सैलानी नहीं थे। इस फूल के खिलने से पहले इसे लगभग दस दिन सूरज की रोशनी दरकार होती है, लेकिन लगातार बारिश ने ये मौका भी नहीं दिया। सितंबर महीने में जब धूप निकली तब ये फूल खिला, लेकिन इसके खिलने के शुरूआती दिन बारिश की भेंट चढ़ गए। जिन्हें इस फूल को देखना था वो केरल और तमिलनाडु के बॉर्डर पर ऊंचाई वाले इलाकों में पहुंचे, लेकिन केरल नहीं आए।

नीलकुरिंजी फूल से भी ज्यादा दुर्लभ है इसका शहद, जिसे कुरिंजीथन कहते हैं। इस फूल का रस मधुमक्खियों को खूब पसंद है, लेकिन इस दुर्लभ शहद को सिर्फ स्थानीय आदिवासी ही हासिल कर सकते हैं और इसे बाजार में बेचा नहीं जाता। स्थानीय लोगों के मुताबिक इसके बहुत से औषधीय गुण हैं, इसीलिए वो इसे अपने पास ही रखते हैं। लेकिन इस शहद के औषधीय गुणों पर अभी तक कोई रिसर्च नहीं हुई है। साथ ही मधुमक्खियां नीलकुरिंजी के अलावा और भी बहुत से फूलों पर बैठती हैं। इसलिए ये दावा नहीं किया जा सकता कि ये शहद पूरी तरह से नीलकुरिंजी फूल का ही है।

बहरहाल अगस्त से अक्तूबर तक इसी फूल की बहार होती है। लिहाजा कहा जा सकता है कि लगभग 70 फीसदी शहद इसी फूल के रस का होता है। यहां के आदिवासी लोग इस शहद को तोहफे के तौर पर एक दूसरे को देते हैं और नवजात को भी यही शहद चटाया जाता है। अब ये फूल 2030 में खिलेगा, लेकिन किस पैमाने पर खिलेगा कहना मुश्किल है।

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