भोगवादी संस्कृति में कामना से ग्रसित है व्यक्ति
रायपुर
भोगवादी संस्कृति का प्रभाव है कि इंसान संसार के विषयों में भूखे व प्यासे भटक रहा है। भूख और प्यास सर्वव्यापी है, हर व्यक्ति के मन में कामना है। समाज में जो दंभ और पाखंड बढ़ रहा है वह हमारा ही दिया हुआ है। शरीर के लिए परम आवश्यक है इस भूख और प्यास को शांत करना। हर कोई सुख और शांति चाहता है लेकिन भोग के विषय से अपने को हटाना नहीं चाहता। जिसने इस भूख पर नियंत्रण पा लिया और अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया उसे ही सही मायनो में सुख और शांति प्राप्त हो सकती है। भूखे तो हनुमानजी भी थे जब अशोकवाटिका में वे पहुंचे थे, लेकिन उनकी भूख चारों फलों से मुक्त थी। चारो फल से तात्पर्य अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष है।
गुरुतेग बहादुर हाल में चल रही श्री राम कथा अनुष्ठान में मानस मर्मज्ञ दीदी मां मंदाकिनी ने बताया कि आज चारों ओर केवल और केवल खान,पान और पहनावे पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव दिख रहा है। भोग (भूख) के साधन में जुटे हुए हैं लोग। प्रत्येक व्यक्ति के मन में कामना है। इसीलिए समाज में पाखंड बढ़ रहा है। शरीर की जो आवश्यकता है उसे पूरा करना भी जरूरी है। दस इंद्रियों की भूख केवल विषय की है। व्यक्ति यह मान बैठता है कि भोग करूंगा तो सुखी रहूंगा। दशरथ व दशमुख में अंतर कथा प्रसंग में इंगित करते हुए उन्होने बताया कि तय आपको करना है किसका अनुसरण करना चाहते हैं। यह त्रेतायुग की नहीं,यह तो हमारे आपके जीवन की व्यथा है। सुख और शांति तो वह पाना चाहता पर यह तभी संभव होगा जब भूख पर लगाम करते हुए इंद्रियों को वश में कर लेंगे। आज लोन पर सुख की सारी सामग्री बैंकों में मिल रही है पर शांति दिलाने वाला कोई बैंक नहीं है। कितना भी भोगवादी के प्रभाव के बादल छाये हुए रहे, यदि हनुमान चालीसा का आश्रय लेते हैं तो सब दूर हो जायेगा।
उन्होने आगे बताया कि भूखे तो अशोकवाटिका लंका में हनुमानजी महाराज भी थे,लेकिन जानकी जी की अनुमति मिलने पर ही उन्होने वाटिका में फल खाना शुरू किया। हनुमान जी ने कहा कि खाने वाले तो रास्ते में बहुत मिले पर खिलाने वाला कोई नहीं मिला। यही कलयुग की भी विवेचना है। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष रुपी फल से पूरी तरह मुक्त थे हनुमान जी। उन्हे भूख थी ज्ञान और भक्ति की। तन, मन, बुद्धि और आत्मा रुपी भूख में जब आत्मा से भूख जागृत हो जो कि पूरी तरह निष्काम होता है वही प्रभु से मिलाता है।