एचआईवी-एड्स के नए मामलों में करीब 90% कमी, भारत में ढीली पड़ रही है एड्स की पकड़

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नई दिल्ली

देश में 1986 में पहला मामला सामने आने के बाद एचआईवी-एड्स कई दशकों एक बड़े खौफ का सबब रहा। इसके खिलाफ शुरू की गई योजनाबद्ध जंग से अब इसकी पकड़ लगातार ढीली पड़ रही है। सरकार 2024 तक देश से इसका पूरी तरह सफाया करने का इरादा रखती है। सरकार ने एचआईवी-एड्स के खिलाफ अपनी जंग को धार देने के लिए नैशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (नाको) तो बनाया ही है, इसके साथ ही इस काम में जानी-मानी हस्तियों, हेल्थ वर्कर्स और आम जनता का भी सहयोग लिया जा रहा है। एचआईवी-एड्स रोगियों को जरूरी मेडिकल हेल्प देने के साथ ही लगातार जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं।

सूत्र बताते हैं कि संगठित प्रयासों का ही नतीजा है कि देश में एचआईवी-एड्स के नए मामलों में अब करीब 90 प्रतिशत तक की कमी आई है। नाको की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में देश में 21.40 लाख लोग एचआईवी से संक्रमित थे। इस दौरान करीब 69 हजार लोगों की मौत इसके कारण हुई और 22675 प्रेग्नेंट महिलाओं को एंटीरोट्रोवायरल थेरेपी की जरूरत पड़ी।

नाको का कहना है कि 2017 तक एड्स के नए मामलों में तो भारी कमी आई ही, इसके कारण होने वाली मौतें भी 2005 के मुकाबले करीब 71 प्रतिशत कम हुईं। आंकड़े बताते हैं कि देश में 2.2 प्रतिशत सेक्स वर्कर, 4.3 फीसदी समलैंगिक, इंजेक्शन के जरिए ड्रग्स लेने वाले 9.9 और 7.2 प्रतिशत ट्रांसजेंडर एचआईवी-एड्स से प्रभावित हैं। देश के उत्तरपूर्वी राज्यों, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में अभी इसका ज्यादा असर है।

कानूनी इलाज भी
सरकार ने एचआईवी-एड्स से जंग के साथ ही इसके रोगियों से भेदभाव रोकने और उन्हें स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के मकसद से कानूनी इंतजाम भी किए हैं। इस मकसद से कई साल की कवायद के बाद 2017 में एक कानून बनाया गया। इसके मुताबिक, कोई भी शख्स या चिकित्सा संस्थान एचआईवी-एड्स पेशंट्स को इलाज देने से मना नहीं कर सकता। इसके साथ ही उनके इलाज से जुड़ी जानकारी को गुप्त रखना होगा।

ऐसे पेशंट्स को रोजगार आदि के साथ ही निवास और संपत्ति किराए पर लेने के मामले में कोई भेदभाव नहीं कर सकता। इनको बीमा देने से भी मना नहीं किया जा सकता। बिल के मुताबिक, 18 साल से कम के ऐसे शख्स को परिवार में रहने और परिवार की सुविधाओं को हासिल करने का अधिकार होगा। इस कानून में यह भी प्रावधान है कि बिना रोगी की सहमति के उसकी जांच नहीं की जा सकती और न ही उस पर रिसर्च की जा सकती है। ऐसे लोगों को जरूरी दवाएं और चिकित्सा सहायता देना राज्यों और केंद्र सरकार की जिम्मेदारी होगी।
 

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