मेरा एक और भाई था -एक लघु कथा

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जोगी एक्सप्रेस 

मेरा एक और भाई था -एक लघु कथा

हम दोनो बचपन के दुश्मन भी दोस्त भी फिर जैसे- जैसे उम्र बढ़ती गई दुश्मनी घटती गई और दोस्त से भाई बन  गया कुल मिला कर हमारा साथ “जय और वीरू की जोड़ी”
साथ सरस्वती शिशु मंदिर मनेन्दरगढ़ जाना सुबह 6 बजे ठंडी हो,बरसात हो,गर्मी हो, कितना मुझे चिढ़ाता था न  कितना परेसान करता था लेकिन देख न वक्त कैसे बदला पता ही नही चला अब लगता है वही दिन फिर जी ले साथ तेरे मैं जैसे ही पढ़ाई करने बिलासपुर आ गया बस वही समय तेरे बात और प्यार मे जान फूक दी गई और मुझे तेरी भाई दोस्त के नाते फिक्र होने लगी तेरी पढ़ाई को लेकर कि मैं तो जैसे-तैसे शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज मे पढ़ने लगा लेकिन तेरे पढ़ाई से रुझान घटने लगा जब भी तुझसे बोलता भाई पढ़ तो तू सिर्फ यही कहता
“अबे तू इंजीनियर बनेगा तो मुझे अपना पी.ए रख लेना अपना और खिलखिला कर मुस्कुरा देता” मुझे और चिंता की ओर ढकेल देता कितना हाथ बाँटता था फिर चाहे राशन दुकान से राशन लाना हो या कही मेरे साथ गाड़ी मे जाना हो कभी तेरे मुँह से नही निकला ही नही किसी से भी मेरे लिए तेरा लड़ जाना ये प्यार ही तो था तेरा
एक फोन मे स्टेशन लेने चले आना और जोर से दूर से ही देख कर हँसना और पास आ कर गले लग जाना फिर बाइक मे बैठना और रास्ते भर बात करना ओह्ह्ह ओ तेरा सवाल भाई तू तो रुकेगा न कितने दिन को आया है घर ?मेरा जबाब हॉ रुकूँगा न भाई कितना खुश होता था फिर धीरे से शुरू होती नगर के राजनीति मे चर्चा, फिर सब का हाल चाल , और भिन्न – भिन्न सवाल जवाब सर बात मे मुस्कुराना और मुझे हँसाने की जोर लगाना कभी कभी मेरे मन मे अचानक आ जाता था की अब तू ज्यादा दिन का महेमान नही है फिर लगता ये सब क्या क्या मन मे आ जाता है सिर्फ दुसरो की ही सोचना अपना कभी नही सोचा दूसरे का भला हो दौड़- दौड़ कर मदद करना फिर चाहे मोहल्ले का काम हो या गणेश पूजा या दुर्गा पूजा फिर भी बहुत अच्छा कर के गया तभी तो देख न आज सब की आँखे भीग जाती है तुझे याद कर के
तेरे साथ जितना वक्त गुजरता उतना ही कम लगता क्यों की हर समय जोक गंभीरता तो अपन जानते ही नही थे और जानते भी क्यों शायद तुझे पता था मेरी दुनिया चार दिनों की है मैं तो भविष्य के लिए सोचा भी की जहाँ रहेगे साथ रहेगे बिलकुंन वैसे दो जिस्म एक जान जैसे तुझे यह भी मंजूर नही चला गया न
वो अंतिम रात जब हम दिनों अंतिम हँसी के ठहके लगाये थे सच कहूँ तो आज तक मुझे न तेरे जैसा यार मिला न ही वो हँसी आज भी लगता है तुझसे मिल लू गले लग जाऊँ  उस रात ऐसे कोई भी शायद ही बचा रहा हो जिसका अपने चर्चा-परिचर्चा मे जिक्र न रहा हो रात के लगभग 10 बजने को थे तूने बोला माँ का फोन आ रहा था जाता हूँ यार मिलते है फिर कल वो कल आया ही नही आज तक तू अपने घर मैं अपने घर रात्रिभोज के बात सो गया मैं अब सुबह जैसे ही उठा उठते ही नही बन रहा था लगा कमर टूट सी गई असहनीय दर्द ये बिना कारण कमर दर्द अशुभ की निशानी है  अब उसी दिन फिर मुझे वापस बिलासपुर कॉलेज आना था जैसे- तैसे मैं उठा फिर लगभग 10 बजे सुबह घर से मन मर के निकल गया टहलने चौराहे मे तू दिखा किसी की बाइक मे सबार हुऐ मैंने रुकने की कोशिश की लेकिन भाई आता हूँ न रुक जा काम है थोड़ा बाइक आगे बढ़ा दी उसने फिर पीछे मुड़ कर देखा तेज़ से हँसा हाथ ऊपर कर की हिलाया वही अंतिम दर्शन थे अब शाम को तुझे फोन किया बंद बाता रहा था घर गया अंकल बताये सुबह से गया हुआ है नही पता कहाँ गया है ये लड़का भी न मुझे स्टेशन आना था रात को 8बजे ट्रेन थी अब आ गया स्टेशन फिर 4 दोस्त लोगो का लगातार फोन आया शशांक कहा है बे मैं बताया पता नही घर ने भी नही है उनको सब मालूम था लेकिन मुझे नही थोड़ा देर बाद पापा जी का फोन आया सब बताये घटना की नर्सरी गया था दोस्तो के साथ पानी से वापस नही निकल पाया मेरे हाथ पैर ढीले ही गए अब मेरा बिलासपुर का टिकट कट चुका था और तेरा कुदरत के पास का मेरा टिकट रद हो गया लेकिन तेरा तो प्राकतिक का था वो कहाँ रद होने वाला था भला वापस घर आ गया अपनी  माँ को ये दुखद खबर नही मालूम थी बताया तो बस वो भी सिसकिया लेने लगी उनकी साँस रुक सी गई दोनो खूब आँशु बहाये सुबह अंतिम बिदाई दिया उस दिन से क्या बताऊँ शशांक क्या हो गया हूँ मैं भी??

              लेखक 

 आदित्य कुमार मिश्र

            बिलासपुर

           साहित्यकार

     मो.-09303028928

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