निकाह, तलाक,हलाला ,खुला ,हराम ,हलाल में उलझा मुस्लिम समाज : कानून ऐसा बने, तलाक शब्द से भी कांपें लोग,महिलाओ के सम्मान का पूरा हो ख़याल

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जोगी एक्सप्रेस 

नई  दिल्ली सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक घोषित कर दिया है लेकिन तलाक के दूसरे प्रकार अभी भी वैध हैं और वे पूर्व की भांति ही लागू रहेंगे। यानी कोई भी शौहर कुरान के मुताबिक एक-एक माह के अंतराल पर तीन बार तलाक कह कर बीवी से संबंध खत्म कर सकता है। तलाक की,ट्रिपल तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर देशभर में जो खुशियां मनाई जा रही हैं,उसका पहला श्रेय उन मुस्लिम महिलाओं को जाता है जिन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया। उसके बाद केंद्र की वर्तमान सरकार को जाता है,जिसने इस्लाम के नाम पर दुकान खोले लोगों का साथ देने की बजाय इंसानियत की पैरवी की। यह कहना है देश में ट्रिपल तलाक के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाने वाले बहराइच के पूर्व सांसद आरिफ मोहम्मद खान का। बढ़ती उम्र के चलते बेड पर पड़े आरिफ को एनबीटी ने जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जानकारी दी तो बोले कि यह मानवता और संविधान के साथ इस्लाम की जीत है। इस्लाम अमानवीय नहीं है। कुछ बरगलाने वाले लोगों ने ट्रिपल तलाक के नाम पर महिलाओं के साथ अमानवीयता की जो हदें पार कर दी थी,उसका अंत तय था। इसके खिलाफ जिन महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का काम किया यह जीत उनकी है।यूं तो तलाक कोई अच्छी चीज नहीं है और सभी लोग इसको नापसंद करते हैं. इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है, लेकिन इसका मतलब यह हरगिज नहीं कि तलाक का हक ही इंसानों से छीन लिया जाये. पति-पत्नी में अगर किसी तरह भी निबाह नहीं हो पा रहा है, तो अपनी जिंदगी जहन्नुम बनाने से बहतर है कि वो अलग हो कर अपनी जिंदगी का सफर अपनी मर्जी से पूरा करें, जो कि इनसान होने के नाते उनका हक है, इसीलिए दुनिया भर के कानून में तलाक की गुंजाइश मौजूद है.

दीन-ए-इब्राहीम की रिवायात के मुताबिक, अरब जाहिलियत के दौर में भी तलाक से अनजान नहीं थे, उनका इतिहास बताता है कि तलाक का कानून उनके यहां भी लगभग वही था, जो अब इस्लाम में है. लेकिन, कुछ बिदअतें उन्होंने इसमें भी दाखिल कर दी थी.

किसी जोड़े में तलाक की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बंध गयी है, उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाये.

जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखायी दे, तो अल्लाह ने कुरान में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहनेवालों को यह हिदायत दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें. इसका तरीका कुरान ने यह बतलाया है कि- ‘एक फैसला करनेवाला शौहर के खानदान में से मुकर्रर करें और एक फैसला करनेवाला बीवी के खानदान में से चुनें और वो दोनों ‘जज’ मिल कर उनमें सुलह कराने की कोशिश करें. इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति-पत्नी नहीं सुलझा सकें, वह खानदान के बुजुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाये’.
कुरान ने इसे कुछ यूं बयान किया है- ‘और अगर तुम्हें शौहर-बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो, तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुकर्रर कर दो, अगर शौहर-बीवी दोनों सुलह चाहेंगे, तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा. बेशक अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और सब की खबर रखनेवाला है’. (सूरेह निसा-35).
इसके बावजूद अगर शौहर-बीवी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है, तो शौहर-बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इंतजार करे, और खास दिनों के गुजर जाने के बाद जब बीवी पाक हो जाये, तो बिना हमबिस्तर हुए कम-से-कम दो जुम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक तलाक दे, यानी शौहर-बीवी से सिर्फ इतना कहे कि ‘मैं तुम्हे तलाक देता हूं’.
तलाक हर हाल में एक ही दी जायेगी दो या तीन या सौ नहीं. जो लोग जिहालत की हदें पार करते हुए दो तीन या हजार तलाक बोल देते हैं, यह इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है. अल्लाह के रसूल (सल्लाहू अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक, जो ऐसा बोलता है, वह इस्लामी शरीयत और कुरान का मजाक उड़ा रहा होता है.इस एक तलाक के बाद बीवी तीन महीने यानी तीन-तीन हैज (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वह गर्भवती है, तो बच्चा होने तक) तक शौहर के ही घर में रहेगी और उसका खर्च भी शौहर ही के जिम्मे रहेगा. लेकिन, उनके बिस्तर अलग रहेंगे. कुरान ने सूरेह तलाक में हुक्म फरमाया है कि इद्दत पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाये और ना ही वह खुद निकले. इसकी वजह कुरान ने यह बतलायी है कि इससे उम्मीद है कि इद्दत के दौरान शौहर-बीवी में सुलह हो जाये और वे तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं.अक्ल की रोशनी से अगर इस हुक्म पर गौर किया जाये, तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी अच्छी हिकमत है, हर मआशरे (समाज) में बीच में आज भड़कानेवाले लोग मौजूद होते ही हैं, अगर बीवी तलाक मिलते ही अपनी मां के घर चली जाये, तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ कान भरने का मौका मिल जायेगा. इसलिए यह जरूरी है कि बीवी इद्दत का वक्त शौहर ही के घर गुजारे.

फिर अगर शौहर-बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो जाये, तो फिर से वे दोनों बिना कुछ किये शौहर-बीवी की हैसियत से रह सकते हैं. इसके लिए उन्हें सिर्फ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक दी थी, उनको खबर कर दें कि हमने अपना फैसला बदल लिया है. कानून में इसे ही ‘रुजू’ करना कहते हैं और यह जिंदगी में दो बार किया जा सकता है. इससे ज्यादा नहीं. (सूरेह बक्राह-229)

शौहर रुजू ना करे, तो इद्दत के पूरा होने पर शौहर-बीवी का रिश्ता खत्म हो जायेगा. लिहाजा कुरआन ने यह हिदायत फरमायी है कि इद्दत अगर पूरी होने वाली है, तो शौहर को यह फैसला कर लेना चाहिए कि उसे बीवी को रोकना है या रुखसत करना है. दोनों ही सूरतों में अल्लाह का हुक्म है कि मामला भले तरीके से किया जाये, सूरेह बक्राह में हिदायत फरमायी है कि अगर बीवी को रोकने का फैसला किया है, तो यह रोकना बीवी को परेशान करने के लिए हरगिज नहीं होना चाहिए, बल्कि सिर्फ भलाई के लिए ही रोका जाये.

अल्लाह कुरआन में फरमाता है- ‘और जब तुम औरतों को तलाक दो और वो अपनी इद्दत के खात्मे पर पहुंच जाये, तो या तो उन्हें भले तरीके से रोक लो या भले तरीके से रुखसत कर दो, और उन्हें नुकसान पहुंचाने के इरादे से ना रोको कि उन पर जुल्म करो. याद रखो कि जो कोई ऐसा करेगा, वह दर हकीकत अपने ही ऊपर जुल्म ढायेगा. अल्लाह की आयतों को मजाक ना बनाओ और अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद रखो और उस कानून और हिकमत को याद रखो, जो अल्लाह ने उतारी है, जिसकी वो तुम्हें नसीहत करता है. अल्लाह से डरते रहो और ध्यान रहे के अल्लाह हर चीज़ से वाकिफ है’. – (सूरेह बक्राह-231)

अगर उन्होंने इद्दत के दौरान रुजू नहीं किया और इद्दत का वक्त खत्म हो गया, तो अब उनका रिश्ता खत्म हो जायेगा, अब उन्हें जुदा होना है. इस मौके पर कुरान ने कम-से-कम दो जगह (सूरेह बक्राह आयत 229 और सूरेह निसा आयत 20 में) इस बात पर बहुत जोर दिया है कि मर्द ने जो कुछ बीवी को पहले गहने, कीमती सामान, रुपये या कोई जायदाद तोहफे के तौर पर दे रखी थी, उसका वापस लेना शौहर के लिए बिल्कुल जायज नहीं है. वह सब माल जो बीवी को तलाक से पहले दिया था, वह अब भी बीवी का ही रहेगा और वह उस माल को अपने साथ लेकर ही घर से जायेगी. शौहर के लिए वह माल वापस मांगना या लेना या बीवी पर माल वापस करने के लिए किसी तरह का दबाव बनाना बिल्कुल जायज नहीं है.

(नोट- अगर बीवी ने खुद तलाक मांगी थी, जबकि शौहर उसके सारे हक सही तरीके से अदा कर रहा था या बीवी खुली बदकारी पर उतर आयी थी, जिसके बाद उसको बीवी बनाये रखना मुमकिन नहीं रहा था, तो महर के अलावा उसको दिये हुए माल में से कुछ को वापस मांगना या लेना शौहर के लिए जायज है.)

अब इसके बाद बीवी आजाद है, वह चाहे जहां जाए और जिससे चाहे शादी करे. अब पहले शौहर का उस पर कोई हक बाकी नहीं रहा. इसके बाद तलाक देनेवाला मर्द और औरत जब कभी जिंदगी में दोबारा शादी करना चाहें, तो वह कर सकते हैं. इसके लिए उन्हें आम निकाह की तरह ही फिर से निकाह करना होगा और शौहर को महर देने होंगे और बीवी को महर लेने होंगे.अब फर्ज करें कि दूसरी बार निकाह करने के बाद कुछ समय के बाद उनमे फिर से झगड़ा हो जाये और उनमें फिर से तलाक हो जाये, तो फिर से वही पूरी प्रक्रिया दोहरानी होगी.
अब फर्ज करें कि दूसरी बार भी तलाक के बाद वे दोनों आपस में शादी करना चाहें, तो शरीयत में तीसरी बार भी उन्हें निकाह करने की इजाजत है. लेकिन, अब अगर उनको तलाक हुई, तो यह तीसरी तलाक होगी, जिस के बाद ना तो रुजू कर सकते हैं और ना ही आपस में निकाह किया जा सकता है.

हलाला

अब चौथी बार उनकी आपस में निकाह करने की कोई गुंजाइश नहीं. लेकिन, सिर्फ ऐसे कि अपनी आजाद मर्जी से वह औरत किसी दूसरे मर्द से शादी करे और इत्तिफाक से उनका भी निभाना हो सके और वह दूसरा शौहर भी उसे तलाक दे दे या मर जाये, तो ही वह औरत पहले मर्द से निकाह कर सकती है. इसी को कानून में ‘हलाला’ कहते हैं.लेकिन, याद रहे यह इत्तिफाक से हो तो जायज है. जान-बूझ कर या योजना बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ इसलिए तलाक लेना, ताकि पहले शौहर से निकाह जायज हो सके, यह साजिश सरासर नाजायज है. अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसी साजिश करनेवालों पर लानत फरमायी है.

खुला

अगर सिर्फ बीवी तलाक चाहे, तो उसे शौहर से तलाक मांगनी होगी. अगर शौहर नेक इंसान होगा, तो जाहिर है वह बीवी को समझाने की कोशिश करेगा और फिर उसे एक तलाक दे देगा. लेकिन, अगर शौहर मांगने के बावजूद भी तलाक नहीं देता, तो बीवी के लिए इस्लाम में यह आसानी रखी गयी है कि वह शहर काजी (जज) के पास जाये और उससे शौहर से तलाक दिलवाने के लिए कहे. इस्लाम ने काजी को यह हक दे रखा है कि वह उनका रिश्ता खत्म करने का ऐलान कर दे, जिससे उनकी तलाक हो जायेगी. कानून में इसे ‘खुला’ कहा जाता है.
यही तलाक का सही तरीका है] लेकिन अफसोस की बात है कि हमारे यहां इस तरीके की खिलाफ वर्जी भी होती है. कुछ लोग बिना सोचे-समझे इस्लाम के खिलाफ तरीके से तलाक देते हैं, जिससे खुद भी परेशानी उठाते हैं और इस्लाम की भी बदनामी होती है.

 

पूर्व सांसद आरिफ मोहम्मद खान

 

पूर्व सांसद आरिफ मोहम्मद खान ने कहा ‘1986 में शाहबानो केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ कट्टरपंथी मुस्लिमों के दबाव के चलते राजीव गांधी सरकार ने जो संविधान संशोधन का फैसला किया था,उसका कांग्रेस पार्टी होने के नाते मैंने पक्ष में वोट दिया था। संसद में मैंने कहा था कि एक दिन देश में मुस्लिम महिलाओं को उनका हक मिलेगा। आज वह दिन आ गया। मुझे कितनी खुशी है इसको शब्दों में बयां नहीं कर सकता। सिर्फ इतना ही कहूंगा कि अब खुदा के पास चैन से जा सकता हूं। गौरतलब है आरिफ मोहम्मद खान उस समय राजीव गांधी सरकार में केंद्रीय मंत्री थे और उन्होंने संविधान संशोधन का कड़ा विरोध किया था। शाहबानो केस पर संविधान संशोधन से नाराज होकर बहराइच से सांसद आरिफ मोहम्मद खान ने इस्तीफा दे दिया था। उस समय बहराइच में बड़े विरोध का सामना कर चुके खान कहते हैं ‘मुझे उस समय जिस विरोध का सामना करना पड़ा, वह सब मैं आज सुप्रीम कोर्ट से मिली खुशी के चलते भूल गया। मेरी मुस्लिम बहन-बेटियां अब ट्रिपल तलाक के अमानवीय और गैर इस्लामी कानून की मार नहीं सहेंगी।’तीन तलाक मामले में जिले के शहर काजियों और मौलानाओं को सुप्रीम कोर्ट का पूरा फैसला देखने और पढ़ने का इंतजार है। उनका कहना है कि फिलहाल कोर्ट का विस्तृत आदेश पता नहीं चल पाया है। कल अखबार में पूरी तफसील पढ़ने के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा।
कोर्ट के मामले में बिना कुछ समझे या देखे कोई टीका-टिप्पणी मुनासिब नहीं है।उन्होंने कहा कि एक ही वक्त में एक साथ तीन बार तलाक कह कर बीबी को तलाक देना इस्लामी तरीका नहीं है।इसकी पूरी शर्तें और मसायल हैं। शरई कानून कुरान पर आधारित है। कुरान किसी की हकतलफी या गलत काम की हरगिज इजाजत नहीं देता। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के मामले में मुल्क के दीनी रहनुमा जो फैसला लेंगे वह मुनासिब होगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत

जमीयत ए-उलमा के महासचिव कारी जाकिर हुसैन ने कहा कि तीन तलाक इस्लाम धर्म में पैगंबर साहब के दौर से ही प्रथा बनी है। यह दीनी एतबार से 1400 साल पुरानी व्यवस्था है, जिसमें तब्दीली नहीं की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए की खुद ऐसा नियम बनाए कि दीन और कानून का कोई उल्लंघन न हो सके। फिलहाल मामला केंद्र सरकार के ऊपर डाला गया है। मामले को लेकर उलमा से बातचीत इस पर आगे कुछ कहा जा सकता है।
ऑल इंडिया इमाम काउंसिल के प्रदेशाध्यक्ष मुफ्ती जुल्फिकार ने कहा कि तीन तलाक की आड़ में मजहबी कानून का मजाक बनाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत है, लेकिन सरकार जो भी कानून तैयार करे, उसमें उलमा, इस्लाम मजहब के बड़े मौअज्जिजों को साथ लिया जाए। तीन तलाक पूरी तरह से गलत प्रथा है। मजहब-ए-इस्लाम में तीन तलाक का तरीका अलग है। लोगों ने उसे अपने तरीके से इस्तेमाल करने का जरिया मान लिया है। इससे ही समाज में बिगाड़ पैदा हो रहे हैं।

सूरा नंबर 4 वर्स नंबर 35 में कहा गया है कि अगर पति-पत्नी में कोई झगड़ा है तो दोनों परिवार के लोग दखल दें। इसके लिए 90 दिन की इद्दत भी है। यानी वेटिंग पीरियड। अगर इस दौरान भी सुलह की स्थिति न बन पाए तो फिर काजी के माध्यम से तलाक की प्रॉसेस पूरी होती है। इस्लाम में इस काज़ी की कल्पना कोर्ट के जज की ही तरह की गई है।

प्री-इस्लामिक अरब में लोग पत्नी से गुलामों जैसा बर्ताव करते थे। कई तरह के तलाक होते थे। तब पैगम्बर हजरत मोहम्मद सब खत्म कराकर तलाक-ए-अहसन लाए। बाद में दूसरे खलीफा हजरत उमर के जमाने में उनके पास कुछ महिलाएं आईं और कहा कि हमारे पति कई-कई दफा तलाक कहते हैं लेकिन फिर रिश्ता बना लेते हैं। ऐसे में हजरत उमर ने कहा- यदि तीन तलाक कहते हैं तो इसे तलाक माना जाएगा। स्थिति को देखते हुए इसे फौरी राहत माना गया था। वो खुद इसे स्थाई नहीं चाहते थे। तीन बार तलाक कहना तो कुरान में है ही नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पैगंबरों ने भी तलाक को गलत माना था, क्योंकि इससे परिवार का विघटन होता है। जस्टिस आरएफ नरीमन ने कहा कि तलाक न केवल विवाह को तोड़ता है बल्कि इससे मानसिक व अन्य कई तरह की व्याधियां पैदा होती हैं जो इस रिश्ते से जन्मे बच्चों पर गलत असर डालती हैं।जस्टिस नरीमन का कहना है कि इस्लाम में विवाह को एक समझौता माना जाता है। अन्य समझौतों की तरह से यह भी विशेष परिस्थितियों में तोड़ा जा सकता है। पैगंबर मोहम्मद साहब के समय से पहले अरब में इस बात की आजादी थी कि छोटी सी बात पर पत्नी को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। जब इस्लाम बना तो उसमें तलाक को उस स्थिति में मान्यता दी गई जिसमें पत्नी के गलत चरित्र की वजह से वैवाहिक संबंध निभाना असंभव हो जाए। लेकिन ऐसे ज्यादातर मामलों में व्यक्ति तलाक के लिए सही कारण को बता ही नहीं पाता है।

1,पति और पत्नी में अनबन हो जाए तो पहले वो खुद इसे खत्म करने की कोशिश करें।

2, इस तरह से बात न बने तो अस्थायी तौर पर रिश्ता खत्म किया जा सकता है।
3, ये तरीके नाकाम होने पर दोनों तरफ के लोग समझौते की कोशिश करें या दोनों तरफ से किसी एक शख्स को तय कर समझौते और फैसले की कोशिश हो।
4, इनसे मामला न सुलझे तो पति एक तलाक देकर पत्नी को छोड़ दे। इद्दत का वक्त गुजरने दे। इद्दत के दौरान अगर समझौता हो जाए, तो पति-पत्नी पहले की तरह शादीशुदा जीवन बिताएं। इद्दत तक समझौता नहीं होता है तो रिश्ता खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगा। औरत प्रेग्नेंट है तो इद्दत का वक्त प्रेग्नेंसी खत्म होने तक जारी रहेगा। तलाक देने की सूरत में पति को महर और इद्दत का खर्च देना होगा। महर बाकी हो तो वो फौरन अदा करनी होगी। इद्दत के दौरान तलाक के बाद 3 महीने 13 दिन तक औरत घर से नहीं निकल सकती। अगर निकलती भी है, तो सूरज ढलने से पहले उसे वापस आना पड़ेगा।
5, इद्दत के बाद समझौता हो जाए तो रजामंदी से नए महर के साथ दोनों नए निकाह के जरिए रिश्ते को बहाल कर सकते हैं।
6, पति पवित्रता की हालत में एक तलाक़ दे। दूसरे महीने दूसरी तलाक दे और तीसरे महीने तीसरा तलाक दे। तीसरे तलाक से पहले समझौता होता है तो पति पिछला रिश्ता बहाल कर ले।
7, पत्नी अगर पति के साथ रहना नहीं चाहती है, तो वो खुला के जरिए रिश्ते को ख़त्म कर सकती है। 
8, जो शख्स एक साथ तीन तलाक दे, मुस्लिम समाज को उसका सोशल बायकॉट करना चाहिए, ताकि इस तरह के मसले कम हों।

फक्करशाह चौक मस्जिद के इमाम खालिद जाहिद ने कहा कि किसी व्यक्ति ने बीवी को एक साथ तीन तलाक कह दिया तो वह हो जाएगा। केंद्र सरकार को तलाक से अलग भी मुस्लिम महिलाओं के अन्य हकों पर भी बात करने के साथ कानून बनाए। शरीयत के कानून में तब्दीली की गुंजाइश बनती है, तो उसके लिए उलमा से राय लेकर केंद्र सरकार अपना कदम उठाए। सीधे कोई कानून थोपा जाएगा तो उसे मंजूर नहीं करेगा। 
जमीयत ए-उलमा के महासचिव कारी जाकिर हुसैन ने कहा कि तीन तलाक इस्लाम धर्म में पैगंबर साहब के दौर से ही प्रथा बनी है। यह दीनी एतबार से 1400 साल पुरानी व्यवस्था है, जिसमें तब्दीली नहीं की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए की खुद ऐसा नियम बनाए कि दीन और कानून का कोई उल्लंघन न हो सके। फिलहाल मामला केंद्र सरकार के ऊपर डाला गया है। मामले को लेकर उलमा से बातचीत इस पर आगे कुछ कहा जा सकता है।

बड़े अफसोस की बात है कि तलाक का मामला कोर्ट तक गया। कोर्ट का जो फैसला आया है, वो सराहनीय है। महिलाओं के हित में है। जैसे तीन बार निकाह, निकाह, निकाह कहने से निकाह नहीं होता, ऐसे ही तलाक, तलाक, तलाक कहने से तलाक नहीं होना चाहिए।इस्लामिक धर्म गुरु 

नोट :यह समचार इस्लामिक जानकारों के आधार पर संग्रहित

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